Thursday, 21 March 2013

हठयोग

हठयोग




हठयोग के सर्वमान्य आधारभूतग्रन्थ हठयोगप्रदीपिका के अनुसार हठयोग वस्तुतः “ह” एवं “ठ” का ऐक्य है इस ऐक्य को ही योग कहा गया है क्योंकि इसमें “ह” एवं “ठ” का योग होता है इसलिये इसे हठयोग कहते हैं। “ह” से अभिप्राय सूर्य नाड़ी या पिंगला या दायाँ स्वर है एवं “ठ” से अभिप्राय चन्द्र नाड़ी या इड़ा या वाम स्वर है।

दोनों स्वरों के मिलन से सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है, इस अवस्था को कुण्डली के जाग्रत होने की अवस्था भी कहा गया है।      यही हठयोग का प्राप्तव्य है।



इस अवस्था को विभिन्न नामान्तरों से वर्णित कहा गया है -

1) मन की दृष्टि से इसे उन्मनी अवस्था या अमनस्क योग,

2) श्वास-प्रश्वास या प्राणायाम की दृष्टि से केवली-कुम्भक की अवस्था या

3) प्राणों का ब्रह्मरंन्ध में प्रविष्ट होने की अवस्था तथा ब्रह्मयोग,

4) नादानुसंधान की दृष्टि से लय की अवस्था तथा नादयोग तथा

5) खेचरी मुद्रा की दृष्टि से चैतन्यपूर्ण एवं शरीरविजय की अवस्था तथा खे-योग, एवं

6) वज्रोली आदि क्रियाओं की दृष्टि से भोग के साथ योग की अवस्था कहा गया है।

ध्यानयोग

ध्यानयोग

परिचय - ध्यानयोग

ध्यानयोग ध्यान के माध्यम से परमतत्त्व या ईश्वरानुभूति का मार्ग है। इसमें ध्यान एवं ध्यान की विधि प्रमुख है।

ध्यान से आशय

1) ध्यान से अर्थ है चित्त की एकाग्र, केन्द्रित स्थिति जो कि किसी वस्तु या विषय पर हो सकती है। ध्यान शब्द में संस्कृत की ‘धृ’ धातु प्रमुख है जिससे अभिप्राय है धारण करना। ध्यान में किसी वस्तु या विषय का धारण होता है।

2) पतंजलि योग सूत्र में ध्यान सातवें अंग के रूप में समाहित है, “तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्” जो कि धारण के बाद की स्थिति है।

3) साङ्यसूत्र में ध्यान को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है – “ध्यानं निर्विषयं मनः”। अर्थात्, निर्विषय मन की स्थिति ध्यान है।

4) संस्कृत में ‘ध्यायते’ - ‘ध्यायेते’ -‘ध्यायन्ते’ इस प्रकार रूप होते हैं।

5) अंग्रेजी में ध्यान - Meditation कहा जाता है। जिससे भाव है - continuous flow and deep concentration on spiritual ideas अन्य सम्बन्धित पदContemplation, Rumination, Brooding etc. हैं।
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ध्यान – संकेन्द्रण – एकाग्रता
ध्यान के परिप्रेक्ष्य में प्रायः संकेन्द्रण (Concentration) एवं एकाग्रता शब्द भी प्रयोग में लाये जाते हैं किन्तु इनमें सूक्ष्म अन्तर है।

एकाग्रता से आशय है एक + अग्र = एकाग्र अर्थात् जिसका अग्र या आगे की स्थिति एक हो,

संकेन्द्रण या Concentration से अर्थ है सम + केन्द्रण = संकेन्द्रण अर्थात् जिसका केन्द्र एक हो। संकेन्द्रण प्रायः सामान्य विषय-भाव परक होता है जबकि ध्यान में आध्यात्मिक भाव प्रमुख है।

ध्यान से धृ = धारण अर्थात् समग्र रूप, समान रूप में में धारण। जैसे वस्त्र का धारण होता है तो हम वस्त्र मय होते हैं, वैसे ही किसी ध्यान में किसी विषय या वस्तु का धारण होने से विषय या भाव मय हम हो जाते हैं। इस प्रकार ध्यान के इस अर्थ के अन्य पद हैं - एकरूपता, तद्-रूपता, तदाकारता आदि।

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गीता के अनुसार ध्यान
1. ध्यान का स्थल एवं आरम्भिक आपेक्षाएँ

शुद्ध या पवित्र देश, आसन की स्थिर स्थिति, न अधिक ऊची या नीची अवस्थिति कुशा आदि का आसन –

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलजिनकुशोत्तरम्। (भ.गी. VI/11)
ध्यान की स्थिति

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।। (भ.गी. VI/12)
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2. ध्यान की आपेक्षित अवस्थितियाँ या
ध्यान में क्या करना है या
ध्यान में क्या होना चाहिये ?

a) एकाग्र मन
b) काया एवं ग्रीवा की समान स्थिति का धारण
c) नासिकाग्र दृष्टि एवं दिशाओं को न देखना
d) प्रशान्त (शान्ति भाव से प्रतिपूरित)
e) भयरहितता
f) ब्रह्मचारी व्रत में स्थिति
g) संयमित मन
h) चित् भगवदाकार (या भगवच्चित्त से)
i) सतत् प्रयास कर्ता, (सतत् मन से प्रयास)
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3. ध्यानयुक्त योगी की विशेषताएँ
ध्यानयुक्त योगी की विशेषताएँ बतलाते हुए गीता में कहा गया है कि वह जितात्मनः, परमात्मा में समाहित, शीतोष्ण-सुखदुःख तथा मान-अपमान में समता परक स्थिति

ज्ञान विज्ञान से तृप्त (संतुष्ट) आत्म स्थिति, कूटस्थ, विजत इन्द्रिय युक्त है। वास्तव में ये ही प्रारम्भिक अपेक्षाएँ एवं परिणाम दोनों को व्यक्त करते हैं।
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4. ध्यान योग में भोजन, चर्या

युक्त आहार, विहार, कर्मों में युक्त चेष्टाएं, न अधिक खाना न कम खाना, युक्त कर्मों में चेष्टाएं। गीता कहती है –
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। (भ.गी. VI/17)
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5. ध्यान – अभ्यास एवं वैराग्य
ध्यानयोग के महत्वपूर्ण उपकरण मन है। मन के ही माध्यम से ध्यान, एकाग्रता एवं अविचलत धारणा की स्थिति सम्भावित होती है। अर्जुन इस परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त व्यवहारिक समस्या उत्थापित करते हैं कि यह मन अत्यन्त चलायमान है इन्द्रियों के द्वारा इसमें मंथन चलता रहता है। इसे वश में करना वायु को वश में करने जैसा कठिन करना है। इस सम्बन्ध में गीता में कहा गया है कि

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। (भ.गी. VI/35)

अर्थात् यह अभ्यास एवं वैराग्य से मन पर नियन्त्रण संभव होता है। गीता में यह कहा गया है कि

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।। (भ.गी. VI/26)

अर्थात् जिस जिस भाव विचार या स्थल को मन जाता हो, वहाँ वहाँ से उसका नियमन, नियन्त्रण, निग्रह करके अपने वश में लाये।
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6. ध्यानयोग की परिणति
सर्वत्र समदर्शी, प्रशान्त मनस युक्त, उत्तम सुख, शान्ति, निर्वाण, ब्रह्म प्राप्ति, स्थितप्रज्ञ आदि।
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7. ध्यान योग की उपमा
ध्यान योग में अविचल एवं स्थिर चित्त की उपमा देते हुए गीता में कहा गया है कि
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।

अर्थात् जिस प्रकार वायु रहित स्थान में दीपक की लौ चलायमान नहीं होती, उसी प्रकार ध्यानस्थ योगी के चित्त की अवस्था रहती है, वह आत्मदृष्टि से आत्म को ही देखता हुया आत्म में ही संतुष्ट रहता है।
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सन्दर्भ-ग्रन्थ
1. श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस गोरखपुर
2. गीतरहस्य या कर्मयोगशास्त्र, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक,
3. Shrimadbhagavadgita, S. Radhakrishanan

ज्ञान योग

ज्ञान योग

ज्ञान मार्ग
ज्ञानयोग क्या है ?

तात्पर्य (meaning) – ज्ञानयोग से तात्पर्य है – ‘विशुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान’ या ‘आत्मचैतन्य की अनुभूति’ है। इसे उपनिषदों में ब्रह्मानुभूति भी कहा गया है।

प्राचीन-सन्दर्भ

प्राचीन-सन्दर्भ (ancient reference) –ज्ञानयोग के सन्दर्भ उपनिषदों में मिलते हैं जहाँ स्पष्टता पूर्वक कहा गये है कि ज्ञान के विना मुक्ति संभव नहीं है –

“ऋते ज्ञानन्न मुक्तिः”

स्रोत-साहित्य

स्रोत-साहित्य (Source literature)– ज्ञानयोग के साहित्य में उपनिषत्, गीता, तथा आचार्य शंकर के अद्वैत परक ग्रन्थ तथा उन पर भाष्यपरक ग्रन्थ हैं। इन्हीं से ज्ञान योग की परम्परा दृढ़ होती है। आधुनिक युग में विवेकानन्द आदि विचारकों के विचार भी इसमें समाहित होते हैं।

ज्ञानयोग का स्वरूप

ज्ञानयोग का स्वरूप (Nature of Jnana Yoga) –
ज्ञानयोग दो शब्दों से मिलकर बना है – “ज्ञान” तथा “योग”।
ज्ञान शब्द के कई अर्थ किये जाते हैं –

लौकिक ज्ञान - वैदिक ज्ञान,

साधारण ज्ञान एवं असाधारण ज्ञान,

प्रत्यक्ष ज्ञान - परोक्ष ज्ञान

किन्तु ज्ञानयोग में उपरोक्त मन्तव्यों से हटकर अर्थ सन्निहित किया गया है। ज्ञान शब्द की उत्पत्ति “ज्ञ” धातु से हुयी है, जिससे तात्पर्य है – जानना। इस जानने में केवल वस्तु (Object) के आकार प्रकार का ज्ञान समाहित नहीं है, वरन् उसके वास्तविक स्वरूप की अनुभूति भी समाहित है। इसप्रकार ज्ञानयोग में यही अर्थ मुख्य रूप से लिया गया है।



ज्ञानयोग में ज्ञान से आशय अधोलिखित किये जाते हैं –


आत्मस्वरूप की अनुभूति

ब्रह्म की अनूभूति

सच्चिदानन्द की अनुभूति

विशुद्ध चैतन्य की अवस्था

ज्ञानयोग के दार्शनिक आधार
ज्ञानयोग के दार्शनिक आधार (Philosophical foundationof Jnana Yoga) – ज्ञानयोग जिस दार्शनिक आधार को अपने में समाहित करता है, वह है ब्रह्म (चैतन्य) ही मूल तत्त्व है उसी की अभिव्यक्ति परक समस्त सृष्टि है। इस प्रकार मूल स्वरूप का बोध होना अर्थात् ब्रह्म की अनूभूति होना ही वास्तविक अनुभूति या वास्तविक ज्ञान है। एवं इस अनुभूति को कराने वाला ज्ञानयोग है। विवेकानन्द ज्ञान योग को स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि आत्मा ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि सर्वत्र है परन्तु जिसका केन्द्र कहीं नहीं है और ब्रह्म ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है, परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है। यही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है।

ज्ञानयोग की विधि

ज्ञानयोग की विधि (Method of Jnana Yoga)– विवेकानन्द के अनुसार ज्ञानयोग के अन्तर्गत सबसे पहले निषेधात्मक रूप से उन सभी वस्तुओं से ध्यान हटाना है जो वास्तविक नहीं हैं, फिर उस पर ध्यान लगाना है जो हमारा वास्तविक स्वरूप है – अर्थात् सत् चित् एवं आनन्द। उपनिषदों में इसे

श्रवण,

मनन एवं

निदिध्यासन

से कहा गया है। इसके अन्तर्गत ब्रह्मवाक्यों श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन को कहा गया है। ये ब्रह्म वाक्य प्रधान रूप से चार माने गये हैं –

1. अयमात्मा ब्रह्म

2. सर्वं खल्विदं ब्रह्म

3. तत्त्वमसि

4. अहं ब्रह्मस्मि

गुरु मुख से इनके श्रवण के अनन्तर इनके वास्तविकर अर्थ की अनुभूति ही ज्ञानयोग की प्राप्ति कही गयी है।

आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा ज्ञान योग
आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा ज्ञान योग (Acharya Shankara Advait Vedanta and Jnana Yoga)– आचार्य शंकर (7-8 वीं शताब्दी ईसा.) के अनुसार परमतत्त्व अद्वैत परक है, इस अद्वैत की अनुभूति ही वास्तविक ज्ञान है, इसे ही ब्रह्मनुभूति कहा गया है। चूँकि इस अनुभूति में सामान्य दुःख आदि नहीं रहते अतः आनन्द की स्थिति भी कहा गया है। आचार्य शंकर ने ज्ञान के द्वारा ही ब्रह्म की अनुभूति को सम्भव माना है। इसके लिये वे केवल कर्म या केवल भक्ति को अपर्याप्त मानते हैं। आचार्य शंकर के अद्वैत वेदान्त का सार निम्न श्लोक से कहा जाता है –

“ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः”

अर्थात् ब्रह्म सत्य है एवं जगत मिथ्या है तथा जीव एवं ब्रह्म अलग नहीं है। (अर्थात् एक ही हैं।) इसी एकत्व या अद्वैत भाव की अनुभूति ही वास्तविक ज्ञान है। एवं इसकी

अनुभूति महावाक्यों (उपरोक्त चार) तथा उनके श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन से संभव बतलायी गयी है। इसके साथ आचार्य शंकर ने साधन-चतुष्टय को भी बतलाया है –

1. नित्यानित्य वस्तुविवेक

2. इहमुत्रार्थ भोगविराग,

3. शमदमादि साधनसम्पत्

4. मुमुक्षत्व

भक्तियोग

भक्तियोग

परिचय - भक्तियोग क्या है ?

भक्तियोग से तात्पर्य भक्ति के माध्यम से ईश्वरानुभूति या परमतत्त्व के साथ योग है। भक्तियोग भक्तिमार्ग का साधन है। विवेकानन्द के अनुसार भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल सहज मार्ग है।

भक्ति का तात्पर्य –

भक्ति भावनाओं को संघीभूत (Condense) करने का मार्ग है। भक्ति शब्द की उत्पत्ति “भज्” धातु से है, जिसका अर्थ होता है, ‘भजना’ एवं भाव है ‘सतत् रूप से उसी विचार या भाव पर आना’। भक्ति के अन्य सम्बन्धित शब्द – उपासना, पूजा, तपस्या, आराधना, जप, होम आदि है।
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भक्ति का आधार –

भक्ति का आधार भावना है। मानव में प्रतिक्षण कोई न कोई भावना उत्पन्न होती रहती है। जब ये भावना अपने उद्देश्य में शुद्ध तथा उच्चतर आदर्श से प्रेरित होती हैं तो ये अच्छे एवं शुभ परिणाम, अनुभूति को लाती हैं। इसके विपरीत अशुद्ध एवं दूषित भावनाएँ अशुभ एवं विपरीतकारी परिणाम को उद्भावित करती हैं। किन्तु जब इन्हीं भावनाओं को सघन बना कर, उच्च आदर्श (ईश्वर) के प्रति लगाते हैं तब यह अपने आदर्श में अवशोषित होती हुई भक्ति का रूप ले लेती है।

वास्तव में भक्ति के आधार भावना एवं इसकी परिणति के रूप में निम्न हो सकते हैं –

a) श्रद्धा
b) आस्था
c) विश्वास
d) ईश्वर-प्रकाशना
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भक्ति की विशेषताएँ (Characteristics of Bhakti)

a) भक्ति अन्य मार्गों की अपेक्षा सरल मार्ग है।
b) यह सभी के लिये समान रूप से खुला है, जाति, धर्म, लिंग आधारित नहीं है।
c) विशेष अर्हता, विशेष ज्ञान, सक्षमता की कमी इसमें बाधक नहीं हैं।
d) भक्त का सरल, सहज एवं निर्मल होना ही भक्ति में आधारभूत है।
e) भक्ति, भक्त एवं भगवान के द्वैत (दो तत्त्व) पर आधारित है।
f) इस प्रकार इसमें तीन प्रमुख तत्त्व हैं –
Ø भक्त, - साधक, उपासक, भजने वाला, व्रती इत्यादि
Ø भक्ति – उपासना, साधना, भजन, कीर्तन आदि,
Ø भगवान – भक्ति का आदर्श, ईश्वर, परमतत्त्व

g) भक्ति भावना प्रधान एवं द्विरेखीय है, अर्थात् जैसी निष्ठा एवं समर्पण भक्त का भगवान के प्रति होता है, वैसा ही उसे अपने आदर्श (भगवान) का स्वरूप दिखायी देता है।
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भक्ति के प्रकार –

भक्ति दो प्रकार की हो सकती है :
1. सोपाधिक भक्ति
2. निरूपाधिक भक्ति

सोपाधिक भक्ति से तात्पर्य है उपाधि या शर्त (Condition) के साथ। उदारहणार्थ यदि किसी विशेष इच्छा पूर्ति हेतु भक्ति आरम्भ होती है, एवं उसके मिलने से समाप्त होती है तो ऐसी भक्ति सोपाधिक है।

निरूपाधिक भक्ति से तात्पर्य है बिना शर्त, प्रयोजन रहित (समर्पण)। जब भक्ति केवल ईश्वरोपासाना के लिये ईश्वरोपासना करता है तब निरूपाधिक भक्ति होती है। निरूपाधिक भक्ति भक्ति की उच्चतर अवस्था है। जब साधक या भक्त या अनुभूत करता है कि सभी कुछ यहाँ तक की उसकी देह मन बुद्धि सभी भगवान मय है, तथा भगवान से पृथक या अलग कुछ भी नहीं तब उसे अपने लिये कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता, तब भक्ति निरुपाधिक हो जाती है।

भक्ति एवं प्रपत्ति –
नवधाभक्ति (नवप्रकार की भक्ति) एवं षट्-शरणागति

अर्थ : नवधाभक्ति - नौ प्रकार की भक्ति
प्रपत्ति - पत् अर्थात् गिरना प्रपत् अर्थात् सतत् चित्त का
भगवान की ओर गिरना, लगना होना।
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नवधा भक्ति के प्रकार हैं -

श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनम्।

भक्ति वास्तव में आदर्श या ईश्वर के गुणों से अभिभूतता की स्थिति है। जब उपासक या भक्ति में भक्त अपने इष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव से जुड़ता है, एवं उसकी श्रद्धा अविचल एवं अविराम, सतत एवं स्थिर होती है । यह स्थिति शरणागति की होती है। शरणागति की स्थिति में भक्ति लगातार भगवान की शरण में होता है उसकी भावना एवं श्रद्धा भगवान या भक्ति के केन्द्र की ओर प्रति होने से इसे प्रपत्ति कहा गया है। षड् प्रपत्तियाँ निम्न लिखित हैं –

अनुकूलस्य सङ्कल्पं प्रतिकूलस्य वर्जनम्।
रक्षस्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणे तथा।
आत्मनिक्षेपकार्पण्यो षडविधा शरणागति।।
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भगवान का स्वरूप

भगवद्गीता में समस्त कर्मों के फलप्रदाता के रूप में भगवान का स्वरूप वर्णित है। इसके अन्तर्गत गीता के विभूतियोग नामक अध्याय में समस्त उत्कृष्टताओं की सृष्टि एवं उनमें भगवान का स्वरूप ही विवेचित किया गया है। समस्त भाव यथा अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश, अयश इत्यादि भगवान से ही उत्पन्न कहे गए हैं –

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोSयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एवं पृथग्विधाः।।
- श्रीमद्भगवद्गीता, X/5

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। (भ.गी. X/8)

अर्थात् मैं (भगवान श्रीकृष्ण) सभी में समावेशित हैं तथा उन्हीं से सभी कुछ प्रवर्तित होता है चलता है।

भगवान षडैश्वर्यों (श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, क्षमा, वीर्य) के धाम तथा गुणाष्टकों से युक्त तथा सोलह कलाओं से विभूषित हैं।
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भगवद्गीता में भक्ति की अवधारणा-

भगवद्गीता के 7वें से 12वें अध्याय पर्यन्त भक्ति योग स्पष्ट रूप से व्यक्ति हुया है। भगवद्गीता के बारहवें अध्याय का नाम ही “भक्तियोग” है। यहाँ पर वर्णित निम्न बिन्दु प्रमुखता से वर्णित हुए हैं –

1. भक्ति की विशिष्टता / श्रेष्ठता –

गीता में अर्जुन यह प्रश्न करते हैं कि ‘अव्यक्त एवं अक्षर ब्रह्म की उपासना करने वाले एवं भगवान (श्री कृष्ण) को उपासना करने वाले दोनों में कौन श्रेष्ठ हैं ?’ (XII/1) इसके उत्तर में कहा गया है -

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।
- भगवद्गीता, XII/2

कि नित्य उपासना से युक्त भगवान के प्रति समर्पित परा श्रद्धा से युक्त भक्त श्रेष्ठ है, अर्थात् यहाँ पर निर्गुण उपासना से सगुण उपासना श्रेष्ठ बतलायी गयी है।

2. भक्त का स्वरूप एवं गुण :

भक्त के गुण इस प्रकार बतलाए गये हैं – वह अद्वेष कारी, मैत्री भाव युक्त, करूणा युक्त, अहंकार रहित, सुख-दुःख सहने में सक्षम भक्ति योग्य हो। वास्तव में भक्ति निर्मलता युक्त भावों का समुच्चय है।

भगवद्गीता में भक्ति की स्थिति एवं भक्ति की परिणति के विषय में भगवान कृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि “मुझमें मन, बुद्धि लगाने पर मुझे ही प्राप्त करोगे, इसमें संशय नहीं है।”

3. भगवान को प्रिय - श्रद्धा एवं भक्ति सहित निश्छल भक्त

भगवान को प्रिय भक्त की विशेषताएँ के सन्दर्भ में कहा गया है कि उसे संतुष्ट, सतत् योगी, दृढ़ निश्चयी होना चाहिये, साथ ही जिससे अन्य व्यक्ति उद्वेग को प्राप्त नहीं करते, और जो दूसरों को कष्ट नहीं देता एवं हर्ष, भय, उद्वेग आदि से विमुक्त होने आदि होने पर प्रिय कहा गया है। स्पष्ट है कि इन्हीं से युक्त होने पर भक्ति सफल होती है –

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।
- भगवद्गीता, XII/14

4. भक्ति योग में क्या करना है ?

समस्त कर्मों का भगवान में अर्पण। गीता में कहा गया है कि -
यत्करोषि यद्श्नाषि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। (भ.गी. IX/27)

अर्थात् जो कुछ भी कर्म करते हो, भोजन करते हो, यज्ञ करते हो, देते हो, तप करते हो – वह समस्त मेरे अर्पण करो। इसके परिणाम को व्यक्त करते हुये पुनः आगे कहा गया है।

5. भक्तियोग की परिणति

भक्ति योग वास्तव में सरल एवं निश्चित फल प्रदायक मार्ग है। भगवान स्पष्ट तौर पर स्वयं कहते हैं कि

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मनं मत्परायणः।। (भ.गी. IX/34)
अर्थात् मेरे मन युक्त हो, मुझे नमस्कार करो, इस प्रकार आत्म भाव से युक्त होकर मुझे ही प्राप्त करोगे इसमें संशय नहीं है।
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भक्तियोग
अवधारणात्मक बिन्दुवार समझ हेतु


1) परिचय
2) भक्ति का तात्पर्य
3) भक्ति का आधार
4) भक्ति के प्रकार
§ सोपाधिक भक्ति
§ निरूपाधिक भक्ति

5) भक्ति एवं प्रपत्ति
§ नवधाभक्ति
§ प्रपत्ति

6) भगवद्गीता में भगवान का स्वरूप
7) भगवद्गीता में भक्ति की अवधारणा-
§ भक्ति की विशिष्टता / श्रेष्ठता
§ भक्त का स्वरूप एवं गुण
§ भक्ति एवं श्रद्धा
§ भक्तियोग की परिणति
§ भक्ति योग में क्या करना है ?

सन्दर्भ-ग्रन्थ
1. श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस गोरखपुर
2. गीतरहस्य या कर्मयोगशास्त्र, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक,
3. Shrimadbhagavadgita, S. Radhakrishanan

प्रगत् अध्ययन एवं चर्चा के लिये
1. भक्ति एवं योगसमन्वय
2. भक्ति उपासना का सबसे प्रचलित, एवं व्यापक माध्यम है। संसार के सभी धर्मों में भक्ति माध्यम भक्ति ही है।
3. अन्धविश्वास एवं भक्ति

कर्म योग

कर्म योग


कर्मयोग क्या है ?

कर्मयोग से तात्पर्य -

“अनासक्त भाव से कर्म करना”। कर्म के सही स्वरूप का ज्ञान।

कर्मयोग दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘कर्म’ तथा ‘योग’ ।

कर्मयोग के सन्दर्भ ग्रन्थ – गीता, योगवाशिष्ठ एवं अन्य।

1. कर्मों का मनोदैहिक वर्गीकरण

1. कर्मों का मनोदैहिक वर्गीकरण –

कर्म से तात्पर्य है कि वे समस्त मानसिक एवं शारीरिक क्रियाएँ । ये क्रियाएँ दो प्रकार की हो सकती है। ऐच्छिक एवं अनैच्छिक। अनैच्छिक क्रियायें वे क्रियाएं हैं जो कि स्वतः होती हैं जैसे छींकना, श्वास-प्रश्वास का चलना, हृदय का धड़कना आदि। इस प्रकार अनैच्छिक क्रियाओं के अन्तर्गत वे क्रियाएँ भी आती हैं जो कि जबरदस्ती या बलात् करवायी गयी हैं। ऐच्छिक क्रियाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

वे क्रियाएँ या कर्म जो कि सोच-समझकर ज्ञानसहित अथवा विवेकपूर्वक किये गये हैं,

वे क्रियाएँ या कर्म जो कि भूलवशात् या अज्ञानवशात् अथवा दबाव में किये गये हों।

दोनों ही स्थितियों में किसी न किसी सीमा तक व्यक्ति इन क्रियायों के फल के लिये उत्तरदायी होता है।

कर्मयोग की व्याख्या में उपरोक्त क्रियाओं के विवेचन के अतिरिक्त कर्मों के अन्य वर्गीकरण को देखना भी आवश्यक होगा।

2. कर्म का प्रयोजन की दृष्टि से वर्गीकरण

2. कर्म का प्रयोजन की दृष्टि से वर्गीकरण -

गीता में प्रयोजन का उद्देश्य की दृष्टि से कर्म का विशद् विवेचन किया गया है - इसके अन्तर्गत तीन प्रकार के विशिष्ट कर्मों की चर्चा की गयी है –

1. नित्य कर्म

2. नैमित्तिक कर्म

3. काम्य कर्म

नित्य कर्म -
वे उत्तम परिशोधक कर्म हैं, जिन्हें प्रतिदिन किया जाना चाहिये। जैसे - शुद्धि कर्म, उपासना परक कर्म आदि।

नैमित्तिक कर्म -
वे कर्म हैं, जिन्हें विशिष्टि निमित्त या पर्व को ध्यान में रखकर किया जाता है जैसे विशिष्ट यज्ञ कर्मादि – अश्वमेध यज्ञ, पूर्णमासी यज्ञ(व्रत) आदि।

काम्य कर्म -
वे कर्म हैं जिन्हे कामना या इच्छा के वशीभूत होकर किया जाता है इस कामना में यह भाव भी समाहित रहता है कि कर्म का फल भी अनिवार्य रूप से मिले इसीलिये इन्हें काम्य कर्म कहा गया है। चूँकि इनमें फल की अभिलाषा जुड़ी हुयी है अतः यह कर्म ही कर्मफल के परिणाम सुख या दुःख (शुभ या अशुभ) से संयोग कराना वाला कहा गया है। इसीलिये काम्य कर्मों को बन्धन का कारण कहा गया है क्योंकि सुख अपने अनुभूति के द्वारा पुनः वैसे ही सुख की अनुभूति करने वाला कर्म की ओर ले जाता है, इसी प्रकार दुःख ऐसी विपरीत अनुभूति न हो इसके विरूद्ध कर्म कराने वाला बनाता है। इस प्रकार काम्य कर्म के अन्तर्गत किये गये कर्म अपने दोनों ही परिणामों (सुख तथा दुःख) के द्वारा बाँधते हैँ इसीलिये इन्हें बंधन का कारण कहा गया है। इसी काम्य कर्म के सुखद या दुःखद् परिणामों से निषेध के लिये भारतीय योग परम्परा में कर्मयोग की अवधारणा प्रस्तुत की गयी है। इस कर्मयोग को गीता में निष्काम कर्म एवं अनासक्त कर्म के नाम से भी प्रस्तुत किया गया है।

गीता में कर्मयोग

गीता में कर्मयोग स्रोत-ग्रन्थ - “गीता या कर्मयोग रहस्य”

“गीता या कर्मयोग रहस्य” नामक ग्रन्थ में बाल गंगाधर तिलक ने गीता का मूलमन्तव्य कर्मयोग ही बतलाया है। जो कि निष्काम कर्म ही है।

निष्काम से तात्पर्य –
‘कामना से रहित या वियुक्त’

निष्काम कर्म के सम्बन्ध में गीता का विश्लेषण निम्न मान्यताओं पर आधारित है –

कामना से वशीभूत कर्म करने पर फलांकाक्षा या फल की इच्छा होती है जो कि उनके सुखादुःख परिणामों से बाँधती है। और यह आगे भी पुनः उसी-उसी प्रकार के सुख-दुःख परिणामों को प्राप्त करने की इच्छा या संकल्प को उत्पन्न करती है। अर्थात् वैसे-वैसे ही कर्म में लगाकर रखती है। इन्हें ही संस्कार कहा गया है। ये संस्कार तब तक प्रभावी होते हैं, जब तक या तो फलों को भोग करने की क्षमता ही समाप्त हो जाये (अर्थात् मृत्यु या अक्षमता की स्थिति में) या फलों के भोग से इच्छा ही समाप्त हो जाये (तब अन्तोगत्वा कर्मों को करने की इच्छा ही समाप्त हो जायेगी और इस प्रकार काम्य कर्म ही नहीं होंगे तो फल से भी नहीं बँधेगे)।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि फलों के परिणाम से आसक्ति समाप्त होना उनमें भोग की इच्छा समाप्त होना ही सुख-दुःख के परिणाम या कर्म के बन्धन से छूटना है। इसीपरिप्रेक्ष्य में गीता अपने विश्लेषण से निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म[1] की अवधारणा को प्रस्तुत करती है।

गीता में कर्म की सविस्तार चर्चा की गयी है। एवं कर्म की गति गहन बतलायी गयी है – “गहना कर्मणो गति”। कृष्ण कहते हैं – कर्म को भी जानना चाहिये, अकर्म को भी जानना चाहिये, विकर्म को भी जानना चाहिये। इस प्रकार गीता में कर्म के जिन प्रकारों की चर्चा आयी है, वे हैं –

कर्म, अकर्म, विकर्म

आसक्त एवं अनासक्त कर्म

निष्काम कर्म

नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य कर्म

निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म

निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म – निष्काम कर्म वस्तुतः यह बताता है कि किस प्रकार कर्म किया जाय कि उससे फल से अर्थात् कर्म के बन्धन से न बँधे। इसके लिये ही गीता में प्रसिद्ध श्लोक जो कि बारंबार उल्लेखित किया जाता है –

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भू मासङ्गोSस्त्वकर्मणि।।

अर्थात्, “तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं है, तुम कर्मफले के कारण भी मत बनो तथा कर्मों को न करने (की भावना के साथ) साथ भी मत हो ”।

गीता का उपरोक्त श्लोक कर्मयोग के सिद्धान्त का आधारभूत श्लोक है तथा विभिन्न तत्त्वमीमांसीय आधार(सिद्धान्त) को भी अपने आप में समाहित करता है

1. गुणों का सिद्धान्त – गीता के अनुसार समस्त प्रकृति सत् रजस् तथा तमस् इन तीनों गुणों की निष्पत्ति है। इसलिये प्रकृति को त्रिगुणात्मक भी कहा गया है। इसी के अनुरूप मानव देह भी त्रिगुत्मक है। इसमें सतोगुण से ज्ञान वृद्धि सुख आनन्द प्रदायक अनुभूति तथा ऐसे ही कार्य करने की प्रेरणा होती है। तथा इन फलों से बाँधने वाले भी ये गुण हैं। इसी प्रकार क्रिया परक, कार्यों को करने की प्रवृत्ति रजो गुण के कारण होती है क्योंकि रजोगुण का स्वभाव ही क्रिया है। इनसे सुख-दुःख की मिश्रित अनुभूति होती है। इस प्रकार की अनुभूति को कराने वाले तथा इनको उत्पादित करने वाले कर्मों में लगाने वाला रजो गुण है। अज्ञान, आलस्य जड़ता अन्धकार आदि को उत्पन्न करने वाला तमोगुण कहा गया है। इससे दुःख की उत्पत्ति एवं अनुभूति होती है। इस प्रकार समस्त दुःखोत्पादक कर्म या ऐसे कर्म जो आरम्भ में सुखद तथा परिमाण में दुःखानुभव उत्पन्न कराने वाले तमोगुण ही हैं – या ऐसे कर्म/ फल तमोगुण से प्रेरित कहे गये हैं। इस प्रकार समस्त फलों के उत्पादककर्ता गुण ही हैं। अहंकार से विमूढ़ित होने पर स्वयं के कर्ता होने का बोध होता है। ऐसी गीता की मान्यता है।



2. अनासक्त तथा निस्त्रैगुण्यता - उपरोक्त विश्लेषण से तीनों ही गुणों के स्वरूप के विषय में यह कहा जा सकता है कि सुख एवं दुःख को उत्पन्न करना तो इन गुणों स्वभाव ही है, और मानव देह भी प्रकृति के इन तीन गुणों के संयोजन से ही निर्मित है, तब ऐसे में स्वयं को सुख-दुःख का उत्पादन कर्ता समझना भूल ही है। ये सुख-दुःख परिणाम या फल हैं, जिनका कारण प्रकृति है। अतः इनमें आसक्त होना (आसक्त-आ सकना गुणों की जगह) ठीक नहीं है। (मा कर्मफल हेतुर्भू – कर्मफल का कारण मत बनो)।

इसी सन्दर्भ में गीता में निस्त्रैगुण्य होने को भी कहा गया है। (निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन)

पुनः क्या कर्म करना बन्द कर दिया जाय ? गीता ऐसा भी नही कहती। क्योंकि गीता की स्पष्ट मान्यता है कि कर्म प्रकृति जन्य तथा प्रकृति के गुणों से प्रेरित हैं। अतः जब तक प्रकृति का प्रभाव, पुरुष पर रहेगा (प्रकृति से पुरुष अपने आप को अलग नही समेझेगा) तब तक गुणों के अनुसार कर्म चलते रहेंगे। उनको टालना संभव नहीं है। ( इसी परिप्रेक्ष्य में गीता में कहा गया है - मा सङंगोsस्तुकर्मणि – अकर्म के साथ भी मत हो)। किन्तु जब ऐसा विवेक (अन्तर को जान सकने की बुद्धि, विभेदन कर सकने की क्षमता) उत्पन्न हो जाये या बोध हो जाये कि समस्त कर्म प्रकृति जन्य हैं, तब कर्मों से आसक्ति स्वंयमेव समाप्त हो जायेगी। ऐसी स्थिति में कर्म, काम्य कर्म नहीं होंगे। तब वे अनासक्त कर्म होंगे। यही आत्म बोध की भी स्थिति होगी क्योंकि आत्मस्वरूप जो कि प्रकृति के प्रभाव से पृथक है का बोध ही विवेक या कैवल्य[2] है, मोक्ष[3] है। इसे ही कर्म योग कहा गया है।

[1] प्रकृतैः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। - गीता 3 / 27

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।। - गीता 3 / 28

[2] केवल – अकेला, प्रकृति से अलग, आत्म यानि स्वंय, अन्य सभी विकारों से रहित ।

[3] “मुच्यते सर्वै दुःखैर्बंधनैर्यत्र मोक्षः”
– जहाँ(जब) सभी दुःख एवं बंधन छूट जाये, वही मोक्ष है।

कर्म योग की उपमा

कर्म योग की उपमा विवेकानन्द दीपक से देते हैं। जिस प्रकार दीपक का जलना एवं या उसके द्वारा प्रकाश का कर्म होना उसमें तेल, बाती तथा मिट्टी के विशिष्ट आकार - इन सभी के विशिष्ट सामूहिक भूमिका के द्वारा संभव होता है। उसी प्रकार समस्त गुणों की सामूहिक भूमिका से कर्म उत्पन्न होते हैं।

फलों की सृष्टि भी गुणों का कर्म है न कि आत्म का । इसी का ज्ञान वस्तुतः कर्म के रहस्य का ज्ञान है, इसे ही आत्म ज्ञान भी कहा गया है। तात्पर्य यह भी है कि संस्कार वशात् उत्तम-अनुत्तम कर्म में स्वतः ही प्रवृत्ति होती है, तथा संस्कारों के शमन होने पर स्वंय ही कर्मों से निवृत्ति भी हो जाती है, ऐसा जानना विवेक ज्ञान भी कहा गया है। ऐसे ज्ञान होने पर ही अनासक्त भाव से कर्म होने लगते हैं, इन अनासक्त कर्मों को ही निष्काम कर्म कहा गया है। इस निष्काम कर्म के द्वारा पुनः कर्मों के परिणाम उत्पन्न नहीं होते। यही आत्म ज्ञान की स्थिति कही गयी है। इससे ही संयोग करने वाला मार्ग “कर्मयोग” कहा गया है। (क्योंकि यह कर्म के वास्तविक स्वरूप से योग करता है।)

उपसंहार

कर्मयोग की अवधारणा कर्म के सिद्धान्त के मूलमन्तव्यों को समाहित कर कर्मों के यथा-तथ्य विश्लेषण को प्रस्तुत करती है। यह पुरातन भारतीय सृष्टि रचना के गुण सिद्धान्त को भी अपने में अन्तर्निहित करता है। इस प्रकार कर्म योग का सिद्धान्त मनोदैहिक विश्लेषण के द्वारा व्यक्ति तथा अस्तित्व अध्यात्मपरक विवेचन को प्रस्तुत करता है।

नवधा भक्ति

नवधा भक्ति 

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

भागवत पुराण में वर्णित नवधा भक्ति का भक्त समाज में बड़ा आदर है और भक्त कवियों ने उसका बहुधा उल्लेख किया है। ये नौ विधाएं हैं- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। ये भक्ति के नौ प्रकार है । इनमें से यदि एक को भी सत्यता से कार्यरुप में लाया जाय तो भगववान श्रीहरि अति प्रसन्न होकर भक्त के घर प्रगट हो जायेंगे । समस्त साधनाये अर्थात् जप, तप, योगाभ्यास तथा वेदों के पठन-पाठन में जब तक भक्ति का समपुट न हो, बिल्कुल शुष्क ही है । वेदज्ञानी या व्रहमज्ञानी की कीर्ति भक्तिभाव के अभाव में निरर्थक है । आवश्यकता हैतो केवल पूर्ण भक्ति की ।

प्रथम तीन विधाओं में भगवान के नाम और गुण की प्रधानता है
चौथी, पांचवीं और छठी में उनके रूप का वैशिष्ट्य है।
अंतिम तीन विधाओं में भक्त के भाव पर बल दिया गया है।

श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में नवधा भक्ति का अतिसुन्दर और सहज वर्णन किया है -

रामचरितमानस में नवधा भक्ति

भगवान् श्रीराम जब भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका आस्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान् राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-

* नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥
दोहा :
* गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
चौपाई :
* मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥
* सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
* नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥

Friday, 15 March 2013


II शिव तांडव स्तोत्र II


जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌। 

डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।

धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।

कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।

मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।

भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।

सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।

धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।

निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-

धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌ ।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥