Wednesday 8 September 2021

मोती डूंगरी गणेश मंदिर, जयपुर



                                       

               मोती डूंगरी गणेश मंदिर, जयपुर

मोती डूंगरी पहाडी की तलहटी में स्थित सुविख्यात विशाल गणेश मंदिर का निर्माण सन 1750 से 1768 के मध्य जयपुर के महाराजा माधवसिंह प्रथम के शासन काल में हुआ था l गणेश प्रतिमा के समक्ष अवस्थित मूषक (चूहे) के नीचे लगे शिलालेख के अनुसार मावली के जयराम पालीवाल द्वारा वि.सं.1818 ई.सन 1762 की गणेश चतुर्थी को गणेश जी की विशाल मूर्ती की प्राण प्रतिष्ठा की गई थी l

मंदिर की स्थापत्य विशेषताएं :

मोती डूंगरी पहाड़ी की तलहटी में सड़क से लगभग 10 फुट ऊंचाई पर निर्मित गणेश मंदिर जयपुर के अन्य गणेश मंदिरों से अधिक भव्य एवं कलात्मक है किन्तु यह प्राचीन निर्माण न होकर जीर्णोद्धार के समय प्रकीर्ण शिल्प है, मंदिर निर्माण के समय वाले मंदिर एवं वर्तमान मंदिर में बहुत अंतर है जो कि बादमें हुए परिवर्तन का रूप है l विशाल संगमरमर की सीढियों से चढ़ने पर मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार आता है जो लगभग सात फुट चौड़ा और दस फुट ऊंचा है जिसके दोनों ओर पांच फीट ऊंचे और छै इंच चौड़े गोल कलात्मक स्तंभों पर संगमरमर की ढलवां मेहराबदार छतरी बनी है l प्रत्येक स्तम्भ के नीचे चौकोर चौकी के ऊपर चक्र पर गोल बारह कोणी लघु गुम्बद पर फिर चक्र बना है l इसके ऊपर 9 इंच के ऊर्ध्व कमल पर बारह कोणी स्तम्भ के ऊपर अधोमुखी कमल पर चक्र, नागवल्लरी और ऊर्ध्व कमल उत्कीर्ण है तथा इसके ऊपर चौकोर चौकी से बहुत सुन्दर मेहराबें उठाई गई हैं l मेहराब के नीचे उलटे कमल के फूलों की लटकन के ऊपर पत्र शिल्प के बाद यह मेहराब पूरे द्वार के बाहरी भाग को आवृत्त करती है l मेहराब के ऊपर संगमरमर का ही ढलवां 6 इंच का निकासू छज्जा बना है l इसके चार फीट अन्दर मंदिर का भीतरी प्रवेश द्वार बना हुआ है जिसकी दोनों ओर बाहियों पर मंदिरों के परम्परागत शिल्प के अनुरूप पत्र वल्लरी की परिक्रमा और टोडियों के तिकोनों में कमल पत्र उत्कीर्ण हैं l मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर 4x6 फीट के दो दो अन्य प्रवेश द्वार बने हुए हैं जो जीर्णोद्धार के समय बनाए गए हैं जिनके भी चारों ओर 9 इंच चौड़ी कमल वल्लरी उत्कीर्ण है l इन द्वारों के ऊपर संगमरमर की जालियों का कलात्मक सुन्दर काम है जो मंदिर के बाहरी दृश्य को भव्यता प्रदान करता है l

जगमोहन :

मंदिर के भीतर 6 फीट चौड़ी गैलेरी के आगे 2x1 वर्ग फुट के 6 आयताकार स्तंभों पर सात मेहराबदार दरवाजे बने हैं जिनके ऊपर अन्दर की ओर भी इसी प्रकार स्तंभों पर मेराब्दार सात दरवाजे बने हैं जिनके पीछे गैलेरी बनी हुई है l गर्भ गृह के सामने मध्य में लगभग 20x25 फुट जगमोहन बना हुआ है जिसमें खड़े होकर भक्तगण दर्शन-वंदन करते हैं l जगमोहन की विशाल छत प्लास्टर ऑफ़ पेरिस का रंगीन कलात्मक भव्य काम किया हुआ है जिसमें रंगीन फूल पत्तियों के सघन काम के बीच पक्षियों की आकृत्तियां अंकित हैं l

जगमोहन की उत्तरी दीवार पर पांच फुट ऊँचे और चार फुट चौड़े विशाल चित्र में गणेश जी ऋद्धि सिद्धि के साथ विराजमान हैं इस चित्र में स्वर्ण वर्क का भव्य काम किया हुआ है शोभा यात्रा के अवसर पर इसी चित्र को रथ में  विराजित किया जाता है l इसके सामने दक्षिणी दीवार पर भी इसी आकार के चित्र में शिव-पार्वती एवं गणेश की विभिन्न लीलाओं का चित्रण किया गया है l जगमोहन की एक दीवार पर गणेश जी की अष्टोत्तर नामावली  (108 नाम ) अंकित हैं जिसका श्रद्धालुगण पाठ किया करते हैं l

गर्भगृह

जगमोहन के सामने प्रथम पूज्य गणेश जी का गर्भगृह है जिसके मध्य में वामशुंडी गणेश जी की लगभग पांच फुट चौड़ी और छै फुट ऊँची विशाल भव्य एवं आकर्षक प्रतिमा विराजमान है गणेश जी का इतना विशाल विग्रह प्राय: बहुत कम देखने को मिलता है l बैठी हुई गणेश प्रतिमा का वाम घुटना नीचे और दाहिना घुटना ऊपर मुदा हुआ है मानो गणेश जी वीरासन मुद्रा में विराजित हैं l प्रतिमा के विशाल मस्तक की नीचे धनुषाकार भौंहों के साथ हाथी जैसे छोटे – कुंचित नेत्र हैं, विशाल सूंड बाँई ओर घूमी हुई है एक दन्त होने के कारण बांये दांत का चिन्ह ही दृष्टव्य है दाहिने दांत पर चांदी चढी हुई है प्रतिमा के आकार के अनुरूप ही विशाल कर्ण हैं चतुर्भुजी प्रतिमा उपरी दाहिने हाथ में अंकुश, बांये हाथ में परशु है, नीचे घुटने पर टिके दाहिने हाथ में मोदक एवं बाएं हाथ में लघु दंड है l आपाद-मस्तक सिंदूर चोले से सुसज्जित गणेश जी के पैर में रजत कडा शोभित है तथा चरणों की उँगलियों के स्पष्ट दर्शन होते हैं l विग्रह के पीछे पीठ से चरणों तक प्रस्तर पीठिका भी विग्रह का ही भाग है प्रतिमा की विशालता के अनुरूप उदर तो विशाल होना ही था जो प्राय: सभी गणेश प्रतिमाओं में दिखाई देता है l मस्तक पर स्वर्ण-रजत मुकुट और रत्न जडित कलंगी शोभित रहती है l गणेश विग्रह के पृष्ठ भाग में दीवार लगभग 8x8 वर्ग फीट का विशाल प्रभामंडल निर्मित है जिसमें बड़ी बड़ी किरणें भि दिखाई देती हैं l सुनहरे प्रभामंडल की यह पृष्ठभूमि गणेश विग्रह को और विशालता एवं भव्यता प्रदान करती है l गर्भ गृह में तीनों ओर दिव्वारों पर स्वर्ण-रजत पत्तर जड़े हुए हैं जिससे गर्भ गृह स्वर्ण मंडित लगता है l विग्र के पीछे गणेश जी के पुत्र शुभ और लाभ के लगभग तीन तीन फुट के संगमरमरी विग्रह हैं जिनके नेत्र विशाल,तीखी नासिका भरे कपोल और स्मित अधर बहुत सुन्दर दीखते हैं l दाहिनी ओर रजत चौकियों पर शालिग्राम सहित कुछ अन्य छोटी छोटी मूर्तियाँ पूजित हैं जिन पर दर्शकों का ध्यान कम ही जाता है l मुख्य विग्रह के सामने दोनों ओर ऋद्धि-सिद्धि की लगभग पांच पांच फुट की सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियाँ हैं इनका केश विन्यास, तीखी शुक-नासिका स्मित अधर भरे कपोल गोल ठोडी बहुत सुन्दर है इन प्रतिमाओं के नेत्र उभरे हुए ओर ओर एक हाथ में चंवर निर्मित है l यह प्रतिमाएं वस्त्राच्छादित रहती हैं जो स्त्री शोबित मर्यादा का प्रतीक हैं l

गर्भगृह के बाहर गणेश जी के समक्ष उनके वाहन मूषक अपने इष्ट की ओर मुखातिब होकर विराजमान हैं l बाहर के भाग में दीपस्थान बने हुए हैं तथा गोखों के अन्दर दीपस्तंभ हैं जिनके जालीदार वातायनों के अन्दर अखंड ज्योति प्रज्वलित है l गर्भगृह की बाहरी मेहराब के ऊपर मेहराबदार संगमरमरी छज्जे पर कलात्मत छतरी बनी हुई है जिसके शीर्ष पर पीतल के कलश लगे हुए हैं l गर्भ गृह के बाहर दोनों ओर दीवारों में उत्तर में अष्टभुजी गणेश की कलातमक मूर्ती दीवार में स्थापित है, दक्षिणी दीवार पर ऊपर शिव पार्वती कार्तिकेय और गणेश के सुन्दर विग्रह उत्कीर्ण हैं l मोती डूंगरी का यह उत्तुंग और भव्य मंदिर शिल्प कला का अद्भुत संगम है l जीर्णोद्धार से पूर्व मंदिर का मूलरूप कुछ अलग था जिसमें गर्भगृह में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के अतिरिक्त न तो आंतरिक न ही बाहरी भव्यता ऐसी थी जो आज देखाई दे रही है, दर्शनार्थी भी बुधवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में बहुत कम ही आते थे l मंदिर के महंत परिवार के निवास स्थान (हवेली) के अतिरिक्त मंदिर परिसर के आसपास न तो इतनी आबादी थी न ही चहल पहल l न इतनी दुकानें थी न ही बाहरी क्षेत्र में अन्य मंदिर थे l यह परिवर्तन विगत पचास - साठ  वर्षों में हुआ है l इससे पूर्व आसपास वन क्षेत्र था और जंगली पशुओं का भय भी व्याप्त था l    

मंदिर से सम्बंधित जनश्रुतियां एवं इतिहास :

जनश्रुतियों के अनुसार गणेश जी की इस भव्य मूर्ती का निर्माण गुजरात में किसी मूर्तिकार/शिल्पकार ने किया था तथा इसे उदैपुर जिले के मावली नामक स्थान से जयपुर लाया गया था l मावली के सेठ जयराम पल्लीवाल की पत्नी को स्वप्न में दर्शन देकर गणेश जी ने उन्हें जयपुर लाने की आज्ञा दी थी l बैलगाड़ी में जयपुर लाते समय गाडी के पहिये यहाँ फंस गए, काफी प्रयासों के बाद भि पहिए नहीं निकलने पर गणपति को जयपुर के समीप इस वन में मोती डूंगरी किले के नीचे तलहटी में ही प्रतिष्ठापित कर दिया गया था l इस जनश्रुति के अतिरिक्त तथ्यात्मक सत्य यह है कि जयपुर महाराजा माधव सिंह प्रथम के शासन काल (सन 1750- 1768) गणेश जी की यह प्रतिमा उदैपुर के मावली से लाई गई थी जिसका उल्लेख प्रतिमा के सामने गणेश जि वाहन स्वरुप मूषक (चूहे) की मूर्ती पर उत्कीर्ण किया हुआ है l माधवसिंह मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह की बहिन का पुत्र था l मेवाड़ महाराणा अमरसिंह ने अपनी पुत्री चन्द्रकंवर के साथ जयपुर के महाराजा जयसिंह का विवाह करते समय यह शर्त रखी थी कि उससे उत्पन्न पुत्र ही जयसिंह का उत्तराधिकारी होगा किन्तु संयोगवश चन्द्रकंवर से पूर्व महाराजा की दूसरी पत्नी सुखकुंवर से ईश्वरीसिंह उत्पन्न हो गया ज्येष्ठ पुत्र के राज्याधिकार की पारम्परिक व्यवस्था के कारण जयसिंह की मृत्यु के बाद ईश्वरीसिंह जयपुर का महाराजा बना परिणामस्वरूप उत्तराधिकार युद्ध हुआ जिसमें विजयी होकर माधवसिंह जयपुर का महाराजा बन गया, कहा जाता है कि गणेश जी की कृपा से राज्य प्राप्त होने पर माधवसिंह ने मावली से लाकर गणेश जी की इस मूर्ति को जयपुर में प्रतिष्ठापित करवाया l मोती डूंगरी के किले में पहले से ही शंकर जी का मंदिर होने के कारण डूंगरी की तलहटी में शिव पुत्र गणेश का मंदिर बनवाया जाना अधिक उपयुक्त लगने के कारण गणेश जी को यहीं विराजमान करवाया गया l

एक अन्य मान्यता के अनुसार जयपुर के उत्तर में गैटोर की पहाड़ी पर गढ़ गणेश मंदिर निर्मित है जिसमें आर्क (आकडे) के गणेश जी की मूर्ती सवाई जयसिंह ने प्रतिष्ठापित करवाई थी इसका उल्लेख श्रीकृष्ण भट्ट रचित ईश्वरविलास महाकाव्य में उपलब्ध है इसके अनुसार गढ़ गणेश मंदिर मोती डूंगरी गणेश मंदिर से प्राचीन है ये दोनों मंदिर एक सीध में हैं l मोती डूंगरी से गढ़ गणेश और वहां से मोती डूंगरी गणेश मंदिर कई मील की दूरी होने पर भी एक सीध में दिखाई देते थे अब कुछ ऊंची इमारतों के कारण कुछ अवरोध हो सकता है l लगभग दो सौ सत्तर वर्ष पूर्व जयपुर शहर केवल परकोटे (चारदीवारी) के भीतर ही सीमित था l इसके बाहर सघन वन-जंगल क्षेत्र था और शेर,बाघ आदि हिंसक पशु विचरण करते थे गणेश मंदिर के आसपास घना वन क्षेत्र होने के कारण इस क्षेत्र में भी हिंसक पशु विचरण करते दिखाई देते थे ऐसा मेरे स्वर्गीय नाना जी श्री श्योनाथ जी जोकि गणेश मंदिर के तत्कालीन भंडारी थे और पुरानी बस्ती से प्राय: पैदल ही मंगला आरती के समय गणेश मंदिर जाया करते थे, ने भी हमें बताया था, अनेकों बार मार्ग में उन्हें शेर पानी पीते भी दिखाई दिए थे किन्तु गणेश जी की कृपा से कभी कोई अनहोनी दुर्घटना नहीं हुई बचपन में हमें भी उनके साथ कभी कभी मंदिर जाने का अवसर मिलता था l नाना जी  ने अपना शरीर भी मंदिर परिसर में ही त्यागा था l  उस समय मंदिर भी बहुत छोटा और पौराणिक शिल्प में बना हुआ था वर्तमान भव्यता नहीं थी तथा श्रद्धालु भक्त भी बुधवार अथवा पर्व या वैवाहिक अवसरों के अतिरिक्त बहुत कम संख्या में ही दर्शनार्थ जाते थे l कालान्तर में जयपुर के आसपास के सामंतों एवं प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों ( सेठ-साहूकार) व राज दरबार के प्रतिष्ठित घरानों को गणेश मंदिर के आसपास बसाने के लिए महाराजा ने जमीनें दे कर उन्हें बसाने का उपक्रम किया जिससे परकोटे के बाहर वर्तमान मोती डूंगरी रोड के दोनों और बाग़-बगीचे और विशाल भवनों-कोठियों का निर्माण हुआ और कुछ चल पहल प्रारम्भ हुई l वर्मान में तो मंदिर जयपुर शहर के मध्य में आ चुका है l गत सत्तर वर्षों में भक्ति भावना की अभिवृद्धि के कारण और मंदिर शहर के मध्य में होने के कारण मोती डूंगरी के गणेश जी जन-जन के आराध्य बन गए हैं l अब तो प्रतिदिन ही मेले जैसा माहोल लगता है l वैवाहिक अवसरों एवं बुधवार को तो मंदिर परिसर ही नहीं बाहर भी भक्त श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है, मान्यता है कि विवाह का प्रथम निमंत्रण मोती डूंगरी गणेश जी को ही दिया जाता है और विवाहोपरांत गठ-जोड़ ( नव दम्पति) को यहीं ढोक लगवाई जाती है ताकि उनका दाम्पत्य जीवन सदैव सुखद एवं समृद्ध रहे l इसके अतिरिक्त नए वाहनों की पूजा भी कराई जाती है lअब तो मंदिर के आसपास अनेक अतिक्रमण भी दिखाई देते हैं l पास ही नव निर्मित लक्ष्मी नारायण मंदिर (बिडला मंदिर) के कारण भी श्रद्धालुओं – दर्शनार्थियों की संख्या में अभिवृद्धि हुई है l पहले जहां केवल एक मात्र गणेश मंदिर ही था अब मंदिर के सामने कुछ और मंदिर भी बन गए हैं l

मंदिर की सेवा - पूजा

मंदिर के महंत दाधीच ब्राम्हण हैं, वर्तमान महंत श्री कैलाश चन्द्र जी के पूर्वज जौहरी बाज़ार स्थित चाँपावत मंदिर के सुप्रसीद्ध कथाभट्ट परिवार के वंशज थे जयपुर के महाराजा ने इन्हें मंदिर की सेवा-पूजा के लिए नियुक्त कर दिया था l मंदिर की वर्तमान भव्यता में राज परिवार के योगदान का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है l मंदिर का वर्तमान स्वरुप एवं इसका वैभव महंत परिवार के प्रयासों के फलस्वरूप गणेश भक्तों के आर्थिक सहयोग से ही संभव हो पाया है l

गणेश मंदिर के पर्व एवं उत्सव :

प्रतिदिन मंगला से शयन आरती की झांकियों के अतिरिक्त प्रतिमास पुष्य नक्षत्र में अथार्वाशीर्ष मन्त्रों के साथ दुग्धाभिषेक का विशेष आयोजन नियमित रूप से होता है l गणेश चतुर्थी मंदिर का सबसे बड़ा वार्षिकोत्सव-पर्व होता है, विगत कुछ वर्षों से गणेश चतुर्थी के अगले दिन विशाल शोभा यात्रा निकाली जाती है जिसमें गणेश जी के  विशाल चित्रपट के अतिरिक्त अन्य अनेक झांकियां सम्मिलित होकर मंदिर से गढ़ गणेश मंदिर तक जाती हैं मानों गणेश जी नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं l इसके अतिरिक्त संकष्ट चतुर्थी, फागोत्सव, अन्नकूट, एवं समय समय पर सवा लाख मोदकों के भोग की विशेष झांकी मंदिर के उत्सवों में सम्मिलित हैं l   

गिरिराज श्रोत्रिय जयपुर 

गणेश चतुर्थी २०२१ 




Thursday 25 February 2021

कुशा अथवा कुश

 कुशा का आध्यात्मिक एवं पौराणिक महत्त्व


अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है। 


इसको कुश ,दर्भअथवा ढाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है। यह पौधा पृथ्वी लोक का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है। 


मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। 


इसके सिरे नुकीले होते हैं उखाडते समय सावधानी रखनी पडती है कि जड सहित उखडे और हाथ भी न कटे। कुशल शब्द इसीलिए बना ।" ऊँ हुम् फट " मन्त्र का उच्चारण करते हुए उत्तराभिमुख होकर कुशा उखाडी जाती है ।


भारत में हिन्दू लोग इसे पूजा /श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं । 

कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के  समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् की सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। कुशा प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं। 


केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।


केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।


 कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका बना कर पहनते हैं। 


कुशा आसन का महत्त्व : - कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। -देवी भागवत 19/32 अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता।


 उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है। 


इसपर बैठकरसाधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है। 


कुशा की पवित्री का महत्त्व : - कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। 


सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।


कुशा जिसे सामन्य घांस समझा जाता है उसका बहुत ही बड़ा महत्व है , कुशा के अग्र भाग जोकी बहुत ही तीखा होता है इसीलिए उसे कुशाग्र कहते हैं l


तीक्ष्ण बुद्धि वालो को भी कुशाग्र इसीलिए कहा जाता है.


कुशा महिलाओं की सुरक्षा करनें में राम बाण है जब लंका पति रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका ले गया , उसके बाद वह बार बार उन्हें प्रलोभित करने जाता था और माता सीता "इस कुशा को अपना सुरक्षा कवच बनाकर "" उससे बात करती थी , जिसके कारण रावण सीता के निकट नहीं पहुँच सका l


आज भी मातृ शक्ति अपने पास कुशा रखे तो अपने सतीत्व की रक्षा सहज रूप से कर सकती है क्योंकि कुशा में वह शक्ति विद्यमान है जो माँ बहिनों पर कुदृष्टि रखने वालों को उनके निकट पहुंचने भी नहीं देती l


 जो माँ या बहिन मासिक विकार से परेशान है उन्हें कुशा के आसन और चटाई का विशेष दिनों में प्रयोग करना चाहीये .


पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों में कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। यह एक प्रकार की घास है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है।


महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं। 


महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए। 


कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा। 


 विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे। 


गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया। 


यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए। 


उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा। 


कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गई इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है.l


 ‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।


जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे महान असुर हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा। उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे। वहीं कुश के रूप में प्रकट हुए। 


कुश ऊर्जा की कुचालक है। इसलिए इसके आसन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने वाले साधन की शक्ति का क्षय नहीं होता। परिणामस्वरूप कामनाओं की अविलंब पूर्ति होती है। 


 वेदों ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।


कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।


हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों में अक्सर कुश (विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसका धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है। 


कुश जब पृथ्वी से उत्पन्न होती है तो उसकी धार बहुत तेज होती है। असावधानी पूर्वक इसे तोडऩे पर हाथों को चोंट भी लग सकती है। 


पुरातन समय में गुरुजन अपने शिष्यों की परीक्षा लेते समय उन्हें कुश लाने का कहते थे। कुश लाने में जिनके हाथ ठीक होते थे उन्हें कुशल कहा जाता था अर्थात उसे ही ज्ञान का सद्पात्र माना जाता था।


वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता। 


पांच वर्ष की आयु के बच्चे की जिव्हा पर शुभ मुहूर्त में कुशा के अग्र भाग से शहद द्वारा सरस्वती मन्त्र लिख दिया जाए तो वह बच्चा कुशाग्र बन जाता है। 


कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है।


 कुशोत्पाटिनी या कुशाग्रहणीअमावस्या ! 

भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है। खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है। 


ऐसे दें कुश को निमंत्रण


कुश के पास जाएं और श्रद्धापूर्वक उससे प्रार्थना करें, कि हे कुश कल मैं किसी कारण से आपको आमंत्रित नहीं कर पाया था जिसकी मैं क्षमा चाहता हूं। लेकिन आज आप मेरे निमंत्रण को स्वीकार करें और मेरे साथ मेरे घर चलें। फिर आपको ऊं ह्रूं फट् स्वाहा इस मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।

पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि।

कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।।

अत: प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय करना चाहिए।


दस प्रकार के होते हैं कुश


शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है-

कुशा, काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका।

गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा, सबल्वजा।।

यानि कुश, काश , दूर्वा, उशीर, ब्राह्मी, मूंज इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है। इसका इस्तेमाल ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए होता है, कुश की पवित्री उंगली में पहनते हैं तो वहीं कुश के आसन भी बनाए जाते हैं।


कौन सा कुश उखाड़ेंं


कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।


संयम, साधना और तप के लिए आज का दिन श्रेष्ठ


कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से  छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है। भगवान विष्णु की आराधना की जाती है यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है. जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है।


कुशाग्रहणी अमावस्या का विधि-विधान


कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये कुश एकत्र लेते हैं. प्रत्येक धार्मिक कार्यो के लिए कुशा का इस्तेमाल किया जाता है. शास्त्रों में भी दस तरह की कुशा का वर्णन प्राप्त होता है. जिस कुशा का मूल सुतीक्ष्ण हो, इसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है. कुशा तोड़ते समय हूं फट मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

अघोर चतुर्दशी के दिन तर्पण कार्य भी किए जाते हैं मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है. कुश अमावस्या के दिन किसी पात्र में जल भर कर कुशा के पास दक्षिण दिशाकी ओर अपना मुख करके बैठ जाएं तथा अपने सभी पितरों को जल दें, अपने घर परिवार, स्वास्थ आदि की शुभता की प्रार्थना करनी चाहिए।


कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व

शास्त्रों में में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है. इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष में चलने वाला पन्द्रह दिनों के पितृ पक्ष का शुभारम्भ भादों मास की अमावस्या से ही हो जाती है!

Thursday 21 May 2020

प्रणाम निषेध

★★★प्रणाम निषेध ★★★

१_दूरस्थं जलमध्यस्थं धावन्तं धनगर्वितम् ।
क्रोधवन्तं मदोन्मत्तं नमस्कारोsपि वर्जयेत् ॥
      दूरस्थित, जलके बीच, दौड़ते हुए, धनोन्मत्त, क्रोधयुक्त, नशे से पागल व्यक्ति को प्रणाम नहीं करना चाहिए ॥

२_ समित्पुष्पकुशाग्न्यम्बुमृदन्नाक्षतपाणिकः ।
जपं होमं च कुर्वाणो नाभिवाद्यो द्विजो भवेत् ॥
       अर्थात् पूजाकी तैयारी करते हुए तथा पूजादि नित्यकर्म करते समय ब्राह्मण को प्रणाम करने का निषेध है । निवृत्ति के पश्चात् प्रणाम करना चाहिए ॥

३_अपने समवर्ण ज्ञाति एवं बान्धवों में ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध द्वारा प्रणाम स्वीकार नहीं करना चाहिए, इससे अपनी हानि होती  है ।

४- स्त्रियों के लिये साष्टाङ्ग प्रणाम वर्जित है  । वे बैठकर ही प्रणाम करें ।
[जानुभ्यां च तथा पद्भ्यां पाणिभ्यामुरसा धिया ।
शिरसा वचसा दृष्ट्या प्रणामोsष्टाङ्ग ईरितः ॥
       जानु, पैर, हाथ, वक्ष, शिर, वाणी, दृष्टि और बुद्धि से किया प्रणाम साष्टाङ्ग प्रणाम कहा जाता है ॥
     परन्तु "वसुन्धरा न सहते कामिनीकुचमर्दनम्" सूत्र के अनुसार स्त्री द्वारा साष्टाङ्ग प्रणाम का निषेध है । अतः उसे बैठकर ही, परपुरुष को स्पर्श न करते हुए, प्रणाम करने का आदेश है ॥ ]

५- गुरुपत्नी तु युवती नाभिवाद्येह पादयोः ।
कुर्वीत वन्दनं भूम्यामसावहमिति चाब्रुवन् ॥
       यदि गुरुपत्नी युवावस्था वाली हों तो उनके चरण छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए । 'मैं अमुक हूँ' ऐसा कहते हुए उनके सम्मुख पृथ्वी पर प्रणाम करना चाहिए ॥
 [मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूश्चाथ पितृष्वसा ।
सम्पूज्या गुरुपत्नीव समास्ता गुरुभार्यया ॥
 मौसी, मामी, सास और बुआ __ ये गुरुपत्नी के समान पूज्य हैं ॥ कूर्मपुराण एवं मनुस्मृति ॥]
       यहाँ कालिदास भी कहते हैं__ 'प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः' अर्थात् पूज्यका असम्मान कल्याणकारी नहीं होता ॥
      गिरिराज शर्मा श्रोत्रिय,जयपुर

Friday 23 August 2019

श्री कृष्ण अपने मुकुट में मोर पंख क्यों धारण करते हैं


जन्माष्टमी पर विशेष
भगवान श्री कृष्ण ने अपने मुकुट में मोर पंख क्यों धारण किया ?
एक बार माता सीता प्यास से अति व्याकुल इधर से उधर जंगल में पानी की तलाश में भटक रहीं थीं,  कंठ सूखे जा रहे थे और माता की तलाश ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी।
जब एक मोर ने यह देखा तो बहुत व्यथित हुआ । माता की परेशानी मैं कैसे दूर करूँ यही विचार उसे बेचैन किए जा रहा था । मोर को जल के सरोवर का पता था, वह अचानक ख़याल करता है कि  यदि मैं नाचूँ तो शायद माता का ध्यान थोड़ी देर के लिए ही सही पर पानी से हटा पाऊँगा । मोर ने पंख फैलाए और नाचने लगा । माता सीता मोर का नृत्य देख भाव विभोर हो गई । प्यास भूल कर नृत्य में खो गईं ।
यह देख कर मोर बहुत प्रसन्न हुआ कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की अर्धांगिनी जगत माता सीता मेरे नृत्य से प्रसन्न हुई और कुछ देर के लिए प्यास की तड़प को भूलकर मुस्करा उठीं। मोर ने सोचा यदि मैं पंख गिरा दूँ तो माता और भी प्रसन्न होंगी । मोर ने एक पंख गिराया । माता सीता ने कौतुहल वश पंख उठाया वाह सुन्दर , अति सुन्दर । मोर सरोवर की और चलता रहा और पंख गिराता रहा । माँ सीता भी पंख उठाती रही और प्यास को भूल इस खेल में मगन हो गई । मोर अपने भाग्य पर नाज़ कर रहा था कि मैं माँ सीता के कुछ काम आया । अहोभाग्य मेरे माँ सीता ने अपने हाथों में मेरे पंख उठाए हुए हैं ।
तभी माता सीता को सामने पानी का सरोवर दिखाई दिया । माँ सरोवर की तरफ़ दौड़ पड़ी । उनके हाथ से मोर पंख ज़मीन पर गिर गए और माता सीता उन मोर पंखो को पैरों से कुचलते हुए सरोवर की तरफ़ बढ़ गई ।
मोर यह देख रोने लगा । कुछ देर पहले जो जिस प्रसन्नता का वह अनुभव कर रहा था वह लुप्त हो गई और वह विलाप कर करने लगा, अचानक वहाँ माता सीता को खोजते हुए भगवान श्री राम आ गये । भगवान ने मोर को विलाप करते देखा फिर नीचे पड़े माता सीता के पैरों तले कुचले पंखो को देखा तो सारा माजरा समझ गए ।
भगवान श्री राम ने एक एक कर वो पंख उठाए और मोर से निवेदन किया कि आप अब अश्रु मत बहाइए । मेरी अर्धांगिनी से जो ग़लती हुई है उसे क्षमा करें । आज से ये अश्रु सामान्य अश्रु नहीं रहेंगे । आप को संतान उत्पति के लिए मादा संसर्ग की आवश्यकता नहीं होगी अपितु आपके अश्रुओं  के पान से ही मयूरी संतान उत्पन्न करने में सक्षम होगी ।
मैं तो वनवासी हूँ अभी इन पंखो को धारण नहीं कर सकता लेकिन एक वचन देता हूँ कि मैं अपने अगले अवतार में ये जो पैरों तले कुचले आपके पंख है इनको अपने मस्तक पर धारण करूँगा ।
मोर प्रभु श्री राम से कहने लगा की हे प्रभु आपने मुझे हृदय से लगाया , मैं भी एक वादा करता हूँ कि मेरी आने वाली पीढ़ी वर्ष में एक बार अपने सम्पूर्ण पंखो का त्याग करेगी ।
आपने देखा होगा कि मोर साल में एक बार अपने सारे पंख त्याग देता है ।
श्री राम जी अपने अगले अवतार में जब श्री कृष्ण के रूप में अवतरित हुए तो मोर को दिया अपना   वचन निभाया और मोर पंख को अपने सर पर धारण किया ।
इसी कारण श्री कृष्ण ने मोर पंख को अपने सर पर धारण किया हुआ है ।
इस प्रसंग में कुछ अन्य कथाएँ भी देखने को मिलती हैं जिनमें मोर पंख धारण करने के कुछ अन्य कारण बताए गए हैं यथा : ज्योतिषियों के अनुसार श्री कृष्ण की जन्म कुंडली में दोष व्याप्त था जिसके निवारण के लिए माता यशोदा एवं नन्द बाबा ने उन्हें मोर पंख धारण कराया जो श्री कृष्ण को सुन्दर लगा और उन्होंने इसे सदैव के लिए अपने मुकुट में धारण कर लिया l
कुछ लोगों का मानना है कि श्री कृष्ण की आद्य शक्ति राधा जी जब नृत्य करती थीं तो उनकी पायल के घुंघरुओं की कर्ण प्रिय ध्वनि से मुग्ध होकर मोर भी उनके साथ नृत्य करने लगते थे इसलिए मोर राधा जी को प्रिय थे, राधा जी की इसी प्रसन्नता के लिए श्री कृष्ण ने मोर के पंख को अपने मुकुट में स्थान दिया l
कुछ अन्य लोग बताते हैं कि मोर पंख में जितने भी रंग व्याप्त हैं वह सभी खुशहाली के प्रतीक हैं इसलिए यह श्री कृष्ण को प्रिय हैं, वहीँ कुछ विद्वानों का मत है कि मोर आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन करने वाला पवित्र पक्षी है वह कभी मादा पक्षी के साथ संसर्ग नहीं करता, मयूरी उसके नेत्रों से गिरे अश्रुओं का पान करके ही गर्भ धारण करती है अत: पवित्रता को श्री कृष्ण ने अपने मुकुट में धारण किया l
वास्तु शास्त्रियों की मानें तो मोर पंख से अनेक वास्तु दोषों का भी निवारण होता है l   


Tuesday 2 August 2016

खांडल विप्र जाति का उद्भव एवं विकास - इतिहास

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Tuesday 29 March 2016

राजस्थान दिवस (30 मार्च) पर इसके एकीकरण पर संक्षिप्त किन्तु विशेष जानकारी  
राजस्थान भारत का एक महत्वपूर्ण प्रांत है। यह 30 मार्च 1949 को भारत का एक ऐसा प्रांत बना, जिसमें तत्कालीन राजपूताना की शक्तिशाली रियासतें विलीन हुईं। भरतपुर के जाट शासक ने भी अपनी रियासत का  विलय राजस्थान में किया था। राजस्थान शब्द का अर्थ है: 'राजाओं का स्थान' क्योंकि यहां गुर्जर, राजपूत, मौर्य, जाट आदि ने पहले राज किया था। भारत के संवैधानिक-इतिहास में राजस्थान का निर्माण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत को आजाद करने की घोषणा करने के बाद जब सत्ता-हस्तांतरण की कार्यवाही शुरू की, तभी लग गया था कि आजाद भारत का राजस्थान प्रांत बनना और राजपूताना के तत्कालीन हिस्से का भारत में विलय एक दूभर कार्य साबित हो सकता है। आजादी की घोषणा के साथ ही राजपूताना के देशी रियासतों के मुखियाओं में स्वतंत्र राज्य में भी अपनी सत्ता बरकरार रखने की होड़ सी मच गयी थी, उस समय वर्तमान राजस्थान की भौगालिक स्थिति के नजरिये से देखें तो राजपूताना के इस भूभाग में कुल बाईस देशी रियासतें थी। इनमें एक रियासत अजमेर मेरवाडा प्रांत को छोड़ कर शेष देशी रियासतों पर देशी राजा महाराजाओं का ही राज था। अजमेर-मेरवाडा प्रांत पर ब्रिटिश शासकों का कब्जा था; इस कारण यह तो सीघे ही स्वतंत्र भारत में आ जाती, मगर शेष इक्कीस रियासतों का विलय होना यानि एकीकरण कर 'राजस्थान' नामक प्रांत बनाया जाना था। सत्ता की होड़ के चलते यह बडा ही दूभर लग रहा था क्योंकि इन देशी रियासतों के शासक अपनी रियासतों के स्वतंत्र भारत में विलय को दूसरी प्राथमिकता के रूप में देख रहे थे। उनकी मांग थी कि वे सालों से खुद अपने राज्यों का शासन चलाते आ रहे हैं, उन्हें इसका दीर्घकालीन अनुभव है, इस कारण उनकी रियासत को 'स्वतंत्र राज्य' का दर्जा दे दिया जाए। करीब एक दशक की ऊहापोह के बीच 18 मार्च 1948 को शुरू हुई राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया कुल सात चरणों में एक नवंबर 1956 को पूरी हुई। इसमें भारत सरकार के तत्कालीन देशी रियासत और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. पी. मेनन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इनकी सूझबूझ से ही राजस्थान के वर्तमान स्वरुप का निर्माण हो सका।

पहला चरण- 18 मार्च 1948
सबसे पहले अलवर, भरतपुर, धौलपुर, व करौली नामक देशी रियासतों का विलय कर तत्कालीन भारत सरकार ने फरवरी 1948 मे अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर 'मत्स्य यूनियन' के नाम से पहला संघ बनाया। यह राजस्थान के निर्माण की दिशा में पहला कदम था। इनमें अलवर व भरतपुर पर आरोप था कि उनके शासक राष्टृविरोधी गतिविधियों में लिप्त थे। इस कारण सबसे पहले उनके राज करने के अधिकार छीन लिए गए व उनकी रियासत का कामकाज देखने के लिए प्रशासक नियुक्त कर दिया गया। इसी की वजह से राजस्थान के एकीकरण की दिशा में पहला संघ बन पाया। यदि प्रशासक न होते और राजकाज का काम पहले की तरह राजा ही देखते तो इनका विलय असंभव था क्योंकि इन राज्यों के राजा विलय का विरोध कर रहे थे। 18 मार्च 1948 को मत्स्य संघ का उद़घाटन हुआ और धौलपुर के तत्कालीन महाराजा उदयसिंह को इसका राजप्रमुख मनाया गया। इसकी राजधानी अलवर रखी गयी थी। मत्स्य संघ नामक इस नए राज्य का क्षेत्रफल करीब तीस हजार किलोमीटर था, जनसंख्या लगभग 19 लाख और सालाना-आय एक करोड 83 लाख रूपए थी। जब मत्स्य संघ बनाया गया तभी विलय-पत्र में लिख दिया गया कि बाद में इस संघ का 'राजस्थान' में विलय कर दिया जाएगा।
दूसरा चरण 25 मार्च 1948
राजस्थान के एकीकरण का दूसरा चरण पच्चीस मार्च 1948 को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ, किशनगढ और शाहपुरा को मिलाकर बने राजस्थान संघ के बाद पूरा हुआ। राजस्थान संघ में विलय हुई रियासतों में कोटा बड़ी रियासत थी, इस कारण इसके तत्कालीन महाराजा महाराव भीमसिंह को राजप्रमुख बनाया गया। bundi के तत्कालीन महाराव बहादुर सिंह राजस्थान संघ के राजप्रमुख भीमसिंह के बडे भाई थे, इस कारण उन्हें यह बात अखरी कि छोटे भाई की 'राजप्रमुखता' में वे काम कर रहे है। इस ईर्ष्या की परिणति तीसरे चरण के रूप में सामने आयी।
तीसरा चरण 18 अप्रैल 1948
बूंदी के महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह की राजप्रमुखता में काम करना पडे, मगर बडे राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बडे भाई ने काम किया। अठारह अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ 'संयुक्त राजस्थान संघ' माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया, कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। और कुछ इस तरह बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथा चरण तीस मार्च 1949
इससे पहले बने संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण के बाद तत्कालीन भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर, जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर केन्द्रित किया और इसमें सफलता भी हाथ लगी और इन चारों रियासतो का विलय करवाकर तत्कालीन भारत सरकार ने तीस मार्च 1949 को वृहत्तर राजस्थान संघ का निर्माण किया, जिसका उदघाटन भारत सरकार के तत्कालीन रियासती और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। यही ३० मार्च आज राजस्थान की स्थापना का दिन माना जाता है। इस कारण इस दिन को हर साल राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। हालांकि अभी तक चार देशी रियासतो का विलय होना बाकी था, मगर इस विलय को इतना महत्व नहीं दिया जाता, क्योंकि जो रियासते बची थी वे पहले चरण में ही 'मत्स्य संघ' के नाम से स्वतंत्र भारत में विलय हो चुकी थी। अलवर, भतरपुर, धौलपुर व करौली नामक इन रियासतो पर भारत सरकार का ही आधिपत्य था इस कारण इनके राजस्थान में विलय की तो मात्र औपचारिकता ही होनी थी।
पांचवा चरण 15 अप्रैल 1949
पन्द्रह अप्रेल 1949 को मत्स्य संध का विलय ग्रेटर राजस्थान में करने की औपचारिकता भी भारत सरकार ने निभा दी। भारत सरकार ने 18 मार्च 1948 को जब मत्स्य संघ बनाया था तभी विलय पत्र में लिख दिया गया था कि बाद में इस संघ का राजस्थान में विलय कर दिया जाएगा। इस कारण भी यह चरण औपचारिकता मात्र माना गया।
छठा चरण 26 जनवरी 1950
भारत का संविधान लागू होने के दिन 26 जनवरी 1950 को सिरोही रियासत का भी विलय ग्रेटर राजस्थान में कर दिया गया। इस विलय को भी औपचारिकता माना जाता है क्योंकि यहां भी भारत सरकार का नियंत्रण पहले से ही था। दरअसल जब राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी, तब सिरोही रियासत के शासक नाबालिग थे। इस कारण सिरोही रियासत का कामकाज दोवागढ की महारानी की अध्यक्षता में एजेंसी कौंसिल ही देख रही थी जिसका गठन भारत की सत्ता हस्तांतरण के लिए किया गया था। सिरोही रियासत के एक हिस्से आबू देलवाडा को लेकर विवाद के कारण इस चरण में आबू देलवाडा तहसील को बंबई और शेष रियासत विलय राजस्थान में किया गया।
सांतवा चरण एक नवंबर 1956
अब तक अलग चल रहे आबू देलवाडा तहसील को राजस्थान के लोग खोना नही चाहते थे, क्योंकि इसी तहसील में राजस्थान का कश्मीर कहा जाने वाला आबूपर्वत भी आता था, दूसरे राजस्थानी, बच चुके सिरोही वासियों के रिश्तेदार और कईयों की तो जमीन भी दूसरे राज्य में जा चुकी थी। आंदोलन हो रहे थे, आंदोलन कारियों के जायज कारण को भारत सरकार को मानना पडा और आबू देलवाडा तहसील का भी राजस्थान में विलय कर दिया गया। इस चरण में कुछ भाग इधर उधर कर भौगोलिक और सामाजिक त्रुटि भी सुधारी गया। इसके तहत मध्यप्रदेश में शामिल हो चुके सुनेल थापा क्षेत्र को राजस्थान में मिलाया गया और झालावाड जिले के उप जिला सिरनौज को मध्यप्रदेश को दे दिया गया।
इसी के साथ राजस्थान का निर्माण या एकीकरण पूरा हुआ। जो राजस्थान के इतिहास का एक अति महती  कार्य था l