Friday, 21 June 2013

भगवान की आरती का विधान





भगवान की आरती का विधान

हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म-अनुष्ठान, देवपूजा , एवं मांगलिक कार्यों  के बाद भगवान की आरती उतारने का विधान है। देखने में आता है कि प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी इच्छानुसार भगवान की आरती उतारता है। जबकि भगवान की आरती उतारने के भी कुछ विशेष नियम होते हैं।

आरती के दो भाव है जो क्रमश: 'आरात्रिक अथवा ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेष रूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित हो उठे चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके।

दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य- उपासना से संबंधित है। ‘आरती वारना’ का अर्थ है- आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना।

आरती कैसे करे

आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों के तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में धृत से या कपूर से विषम संख्या की (1,5,7,11,21,101) अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये-विषम संख्याओ में तीन की संख्या वर्जित है.

तत्श्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनै:।।
प्रज्वलयेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्तिकम्।।

साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में आया है-

कुंकुमागुरुकर्पूरघृतचन्दननिर्मिता:
वर्तिका: सप्त वा पंच कृत्वा वा दीपवर्त्तिकाम्।।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शंखघण्टादिवाद्यकै:।

‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा दिये की (रुई और घी की) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियों से शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिये।’

‘आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाये, दो बार नाभि देश में, एक बार मुख मण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाये’इl तरह चौदह बार आरती घुमानी चाहिये.
जिस देवता की आरती करनी होती है, उस देवता का बीज मंत्र, स्नान थाली, नीराजन थाली, घण्टिका और जल कमण्डलु आदि पात्रों पर चन्दन आदि से लिखना चाहिए और फिर आरती द्वारा भी बीज मंत्र को देव प्रतिमा के सामने बनाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति तत्तद देवताओं के बीज मंत्रों का ज्ञान न रखता हो तो सभी देवताओं के लिए 'ऊं' को लिखना चाहिए। अर्थात आरती को इस प्रकार घुमाना चाहिए, जिससे 'ऊं' के वर्ण की आकृति बन जाए।

आदौ चतु: पादतले च विष्णो-
र्द्वौ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चांग्ङेषु च सप्तवारा-
नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।
आरती के अंग
आरती के पाँच अंग होते हैंअर्थात केवल आरती करना अकेला नहीं आता बल्कि उसके साथ साथ कुछ और क्रियाए भी होती है जिसे आरती के अंग कहा जाता है -

पंच नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्चत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पंचमं प्रणिपातेन साष्टांकेन यथाविधि।।

अर्थात - ‘प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करे।’

१. दीपमाला के द्वारा - साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है।

२. सोदकाब्ज – जल युक्त शंख - चौदह बार प्रज्वलित ज्योतियो द्वारा आरती करने से इष्ट देव के श्री अंगों को जो ताप पहुँचता है उसके निवारण शीतलीकरण के लिए शंख में जल भरकर बार बार घुमाया जाता है,और बीच बीच में थोडा थोडा जल भूमि पर छोड़ा जाता है शंख के अभाव में शुद्ध पात्र द्वारा भी निर्मच्छन किया जाता है .
३.धौतवास - अर्थात धुला हुआ वस्त्र, दाये हाथ में शुद्ध स्वच्छ मुलायम और सुखा वस्त्र लेकर उसी प्रकार घुमाया जाता है इसका भाव यह है कि जल से शीतलीकरण करते हुए जो भावमय जल बिंदु इष्ट के श्री अंगों पर पड़ गए हो उन्हें पोछना .
४. चमर – मयूरपिच्छ का पंखा लेकर श्री विग्रह से ऊपर हवा में लहराते हुए धीरे धीरे घुमाना इस प्रकार शीतल मंद पवन से इष्ट को आराम पहुँचाना चमर को जोर से तीव्र गति से पंखे कि भांति नहीं चलाना चाहिये .
५. दंडवत – साष्टांग प्रणाम इसका भाव स्वतः स्पष्ट है आत्म निवेदन–समर्पण और क्षमा प्रार्थना करना.
आरती लेने का अर्थ –
ऐसे कहा जाता है कि प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- उनकी ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के द्योतक हैं यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। आरती के साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गाये जाते हैं।
आरती देखने का महत्व –
आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-

नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम्।।१
धूपं चारात्रिकं पश्येत् कराभ्यां च प्रवन्दते।
कुलकोटि समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।२
१. अर्थात - ‘जो देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान् की आरती (सदा) देखता है, वह सात जन्मों तक ब्राह्मण होकर अन्त में परमपद को प्राप्त होता है।’
२. अर्थात - ‘जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है
और भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।’

ध्यान रखने योग्य बाते – १. - पंच नीराजन में जलते हुए दीप युक्त दीप पात्र को आरती से पूर्व और आरती से बाद खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये ,लकड़ी या पत्थर कि चौकी या किसी पात्र में आरती पात्र को रखना चाहिये.
“भूमौ प्रदीप यो र्पयति सोन्ध सप्तजन्मसु “
२. – निर्मच्छन हेतु शंख में जल भरने के लिए शंख को जल में डुबोकर कभी नहीं भरना चाहिये.ऊपर से जल डालकर शंख में भरना चाहिये .बजाने वाले (छिद्रयुक्त)शंख में जल भरकर निर्मच्छन नहीं करना चाहिये .शंख चाहे रिक्त हो या जल से भरा कभी खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये.
३. – निर्मच्छन में उपयुक्त वस्त्र स्वच्छ शुद्ध कोमल हो,उसे अन्य कार्य में ना लिया जावे यहाँ तक कि श्री विग्रह के स्नानोपरांत अंग पोछने के कार्य में भी ना लिया जावे .
४. – आरती में बजाई जाने वाली घंटी को भी भूमि पर नहीं रखनी चाहिये .

आरती के महत्व को विज्ञानसम्मत भी माना जाता है। आरती के द्वारा व्यक्ति की भावनाएँ तो पवित्र होती ही हैं, साथ ही आरती के दीये में जलने वाला गाय का घी तथा आरती के समय बजने वाला शंख वातावरण के हानिकारक कीटाणुओं को निर्मूल करता है। इसे आज का विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है।

Wednesday, 5 June 2013

यंत्रों का महत्व एवं वैज्ञानिक विश्लेषण







यंत्रों का महत्व एवं वैज्ञानिक विश्लेषण


साधना विज्ञान में विशेष कर वाममार्गी तांत्रिक साधनाओं में यंत्र-साधना का बड़ा महत्व है । जिस तरह देवी-देवताओं की प्रतीकोपासना की जाती है और उनमें सन्निहित दिव्यताओं, की अवधारणा की जाती है, उसी तरह 'यंत्र' भी किसी देवी या देवता के प्रतीक होते हैं ।
इनकी रचना ज्यामितीय होती है । यह बिन्दू, रेखाओं, वक्र-रेखाओं, वर्गों, वृत्तों और पद्ददलों से मिलाकर बनाये जाते हैं और अलग-अलग प्रकार से बनाये जाते हैं । कई का तो बनाना भी कठिन होता है । इनका एक सुनिश्चित उद्देश्य होता है । इन रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और यहाँ तक कि कोण, अंश का भी विशेष अर्थ होता है ।
जिस तरह से देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । उसी तरह यंत्रों में भी गंभीर लक्ष्य निहित होते हैं । इनका निर्माण पत्थर, धातु या अन्य वस्तुओं के तल पर होता है । रेखाओं और त्रिभुजों आदि के माध्यम से बने चित्रों को 'भण्डार' कहा जाता है, जो किसी भी देवता के प्रतीक हो सकते हैं, किन्तु 'यंत्र' किसी विशिष्ट देवी या देवता के प्रतीक होते हैं ।
तंत्र विद्या विशारदों के अनुसार यंत्र अलौकिक एवं चमत्कारिक दिव्य शक्तियों के निवास स्थान है । ये सामान्यतया  स्वर्ण, चाँदी एवं ताँबा जैसी उत्तम धातुओं में निर्मित  उत्तम माने जाते हैं । ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगे उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं । उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रायः इन्हीं से बने यंत्र प्रयुक्त होते हैं ।
ये यंत्र केवल रेखाओं और त्रिकोणों आदि से बने ज्यामिति विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं होते, वरन् उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की जाती है । जिस प्रकार से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यंत्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं । इन यंत्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है ।
भारतीय दर्शन का मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सारी देव शक्तियाँ पिण्ड अर्थात् मानवीकाया में भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं । मानवी काय-पिण्ड उस विराट् विश्व-ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है, अतः उस
में सन्निहित शक्तियों को यदि जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो वे भी उतनी ही समर्थ एवं चमत्कारी हो सकती है ।
यंत्र साधना में साधक यंत्र का ध्यान करता है और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अपनी पिण्ड चेतना को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है । एक समय आता है जब दोनों में कोई अंतर नहीं रहता और वह अपनी ही पूजा करता है । उसके ध्यान में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐक्य हो जाता है । वह भगवती महाशक्ति को अपना ही रूप समझता है, फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है । वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता । वह अद्वेत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक रूप ही लगने लगते हैं । साधक की चेतना अब अनंत विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर देती है । यंत्र पूजा में यही भाव निहित है ।
'
यंत्र' का अर्थ 'ग्रह' होता है । यह 'यम' धातु से बनता है जिससे ग्रह का ही बोध होता है, क्योंकि यही नियंत्रण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है यों तो सामान्य-भौतिक अर्थ में यंत्र का तात्पर्य मशीन से लिया जाता है जो मानव से अधिक श्रम साध्य और चमत्कारी कार्य कर सकती है और हर कार्य में सहायक सिद्ध होती है ।
उदाहरण के लिए मोटर-कार, रेलगाड़ी, वायुयान,सैटेलाइट आदि की उपयोगिता एवं द्रुतगामिता से सभी परिचित हैं । इसी तरह माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप जैसे सूक्ष्म एवं दूरदर्शी यंत्रों को भी सभी लोग जानते हैं कि किस तरह उनसे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं एवं दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकता है । इसी तरह विराट् ब्रह्म को देखना हो तो भी यंत्र की अपेक्षा रहती है, उसकी भावना करनी पड़ती है । तांत्रिक यंत्र को निर्गुण ब्रह्म के शक्ति-विकास का प्रतीक माना जाता है ।
अध्यात्मेत्ताओं ने यंत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा भी है-''जिससे पूजा की जाये, वह यंत्र है । तंत्र परम्परा में इसे देवता के द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त यंत्र शरीर के रूप में इसे देवता के रूप का प्रतीक है जिसकी उपस्थिति को वह मूर्तिमान करता है और जिसका कि मंत्र प्रतीक होता है ।'' इस तरह यंत्र को देवता का शरीर कहते हैं और मंत्र को देवता की आत्मा ।
इसके द्वारा मन को केन्द्रिरत और नियंत्रित किया जाता है । कुलार्णव तंत्र के अनुसार-''यम और समस्त प्राणियों से तथा सब प्रकार के भयों से त्राण करने के कारण ही इसे 'यंत्र' कहा जाता है ।

यह काम, क्रोधादि दोषों के समस्त दुःखों को नियंत्रण करता है । इस पर पूजित देव तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं । सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी सर जॉन वुडरफ ने भी अपनी पुस्तक  ''प्रिसिपल्स ऑफ तंत्र'' में लिखा है कि इसका नाम 'यंत्र' इसलिए पड़ा कि यह काम, क्रोध व दूसरे मनोविकारों एवं उनके दोषों को नियंत्रित करता है ।

यंत्र-साधना का उद्देश्य ब्रह्म की एकता सिद्धि प्राप्त करना है । यंत्र द्वारा इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती है । इनका संकेत सूत्र यंत्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है । उनका चिंतन, मनन, करना होता है । विकार परिष्कृत एवं भावसाधना से ही उत्कर्ष होता है । यंत्र के बीच में बिन्दू होता है, जो गतिशीलता का, प्रतीक है । शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से सतत चक्कर काट रहा है । यह सर्वव्यापक है ।
अतः हमें भी उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, वरन हर क्षण आगे बढ़ने के लिए तत्पर और गतिशील हो सकते हैं । बिन्दु आकाशतत्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुप्रवेश भाव रहता है जो आकाश का गुण है । बिन्दु यंत्र का आदि और अंत भी होता है । अतः यह उस परात्पर परम चेतन का प्रतीक है जो सबसे परे है, जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं ।
वस्तुतः प्रत्येक यंत्र शिव और शक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कराने वाला एक अमूर्त ज्यामितीय संरचना होता है । इसमें उलटा त्रिकोण 'शक्ति' का और सीधा त्रिकोण 'शिव' का प्रतीक माना जाता है । एक-दूसरे को काटते हुए उलटे और सीधे त्रिकोणों से ही यंत्र विनिर्मित होता है ।
त्रिभुज का शीषकोण-(वर्टिकल-एंगल) जब ऊपर की ओर बना होता है तो यह अग्निशिखा का प्रतीक माना जाता है जो उन्नति का ऊपर उठने का भाव प्रदर्शित करता है । जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है तो जल-तत्त्व का द्योतक माना जाता है, क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल का स्वभाव है ।
यंत्र में त्रिकोणों के चारों ओर गोलाकार वृत-सर्किल बनाये जाते हैं जिसे पूर्णता का और खगोल का प्रतीक कहा जा सकता है । इसे वायु का द्योतक भी माना जाता है, क्योंकि वृत में वृत्ताकार गति के लक्षण पाये जाते हैं । जब एक बिन्दू दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है तो वृत बनता है वायु भी यही करती है और जिसके साथ संपर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है । अग्नि और जल के साथ यही स्थिति रहती है
यंत्र में इस गोलाकार वृत के सबसे बाहर जो चार 'द्वार' वाला चतुष्कोण या चतुर्भुज बना होता है, उसे 'भूपुर' कहते हैं । इसमें बहुमुखता का भाव है । यह पृथ्वी का, भौतिकता का और विश्व-नगर का प्रतीक माना जाता है । किसी भी दशा में इसके चारों द्वारों को पार करके ही साधक मध्य में स्थित उस महाबिन्दू तक पहुँच सकता है जहाँ परम सत्य स्थित है । यह बिन्दु यंत्र के बीच में रहता है और यह अंतिम लक्ष्य माना जाता है । वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं और एकता सधती है ।

आगम ग्रंथों के अनुसार यंत्रों में चौदह प्रकार की शक्तियाँ अंतर्निहित होती हैं और प्रत्येक इन्हीं में से किसी न किसी शक्ति के अधीन रहते हैं । इन्हीं शक्तियों के आधार पर यंत्रों की रेखायें और कोष्ठकों को निर्माण होता है ।
इन यंत्रों में २६ तत्त्वों का समावेश होता है, जिनमें पंचमहाभूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचर्कमेन्दि्रयाँ और पांच इनके विषय-रूप रस, गंध आदि तन्मात्रयें, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति पुरुष, कला, अविद्या, राग, काल, नियति, माया, विद्या, ईश्वर, शिव, शक्ति आदि आते हैं ।
जिस तरह मंत्रों में बीजाधार होते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी १ से लेकर २६ तक की संख्या बीज संख्या मानी गयी है । ये बीज संख्यायें चौदह शक्तियों पर आधारित होकर २६ तत्वों के भावों को भिन्न-भिन्न प्रकट कर रेखाओं, कोष्ठकों के आकार-प्रकार और बीजाक्षरों के अधिष्ठाता देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उन देव शक्तियों को स्थान विशेष पर प्रकट कर मानव संकल्प की सिद्धि प्रदान करती हैं । इन्हीं २६ तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी जल, वायु, अग्नि आदि जो २५ वर्ण बीजों से संबंध रखते हैं ।
यंत्र विज्ञान में १,९ तथा शून्य की संख्या अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है । जिस प्रकार एकाक्षरी बीज मंत्रों के अनेक अर्थ होते हैं उसी तरह प्रत्येक संख्या बीज भी अनेक अर्थों वाले होते हैं । ये अंकबीज विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के ऊपर प्रभाव डालने की अपार शक्ति रखते हैं ।
मीमांसाशास्त्र में कहा गया है कि देवताओं की कोई अलग मूर्ति नहीं होती । ये मंत्र मूर्ति होते हैं । वे यंत्रों में आवद्ध रहते हैं और उन पर अंकित अंकों एवं शब्दों का जब लयबद्ध ढंग से भावपूर्ण जप किया जाता है तो उनसे एक विशिष्ट प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसका प्रभाव उच्चारणकर्त्ता पर ही नहीं पड़ता, समूचे आकाश मंडल एवं ग्रह-नक्षत्रें पर भी पड़ता है ।
यंत्र शरीर में स्थित शक्ति केन्द्र को मंत्र एवं अंकों के शक्ति के सहकार से उद्यीप्त-उत्तेजित करता है । मानवी काया में अनेकों सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं जिन्हें देवता की संज्ञा दी जा सकती है । यंत्र वस्तुतः इन्हीं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के मानचित्र के समान हैं जिनकी साधना से साधक में तदनुरूप ही शक्तियों का विकास होता है और वह उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए आत्मोकर्ष के चरमलक्ष्य तक जा पहुँचता है ।
मंत्रों की तरह यंत्र भी बहुविध एवं संख्या में अनेकों हैं और उनका रचना विधान भी प्रयोजन के अनुसार कई प्रकार का होता है । तंत्रशास्त्रों में इस तरह के ९९० प्रकार के यंत्रों का वर्णन मिलता है जिनकी प्रतीकात्मकता की विशद व्याख्या भी की गयी है इनमें से कुछ यंत्रों को 'दिव्य यंत्र' कहा जाता है । ये स्वतः सिद्ध माने जाते हैं और दैवी शक्ति संपन्न होते हैं ।

उदाहरण के लिए बीसायंत्र, श्री यंत्र, पंचदशी यंत्र आदि की गणना दिव्य यंत्रों में की जाती है । इसमें 'श्री यंत्र' सबसे प्रसिद्ध है । इसकी उत्पति के संबंध में 'योगिनी हृदय' में कहा है कि ''जब परम्परा शक्ति अपने संकल्प बल से ही विश्व-ब्रह्मण्ड का रूप धारण करती है और अपने स्वरूप को निहारती है तभी 'श्री यंत्र' का आविर्भाव होता है ।''
'
श्री यंत्र' आद्यशक्ति का बोधक है । इसका आकार ब्रह्मण्डांकार है जिसमें ब्रह्माण्ड  की उत्पति और विकास का प्रदर्शन किया गया है । यह कई चक्रों में बँटा होता है जिनमें से प्रत्येक की अपनी  महिमा-महत्ता है ।


इस यंत्र के सबसे अंदर वाले वृत्त के केन्द्र में बिन्दू स्थित होता है जिसके चारों ओर नौ त्रिकोण बने होते हैं । इनमें से पाँच की नोंक ऊपर की ओर और चार की नीचे की ओर होती है । ऊपर की ओर नोंक वाले त्रिभुजों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है और शिव युवती की संज्ञा दी जाती है । नीचे की ओर नोंक वाले शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्हें 'श्री कंठ' कहते हैं ।
उर्ध्वमुखी पाँच त्रिकोण, पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रिया , पाँच कर्मेन्द्रियाँ  पाँच तन्मात्रयें और पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं । शरीर में यह अस्थि, माँस, त्वचा आदि के रूप में विद्यमान हैं । अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्ज् के प्रतीक हैं और ब्रह्माण्ड  में मन, बुद्धि चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं । ये सभी नौ त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
त्रिकोण के बाहर या पश्चात जो वृत्त होते हैं वे शक्ति के द्योतक हैं । इस यंत्र में पहले वाले वृत्त के बाहर एक आठ दल वाला कमल है तथा दूसरा सोलह दलों वाला कमल दूसरे वृत्त के बाहर है । सबसे बाहर चार द्वारों वाला 'भूपुर' है जो ब्रह्माण्ड  की सीमा होने से शक्ति गति-क्षेत्र है ।
इस यंत्र में उर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नितत्व के, वृत्त वायु के, बिन्दु आकाश का और भूपुर पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है । यह यंत्र सृष्टिक्रम का है । ''आनन्द लहरी'' में आद्य शंकराचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है । वे स्वयं इसके उपासक थे । उनके हर मठ में यह यंत्र रहता है ।
योगिनी तंत्र में भी इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि आध्यात्मिक उन्नति के विशेष स्तर पहुँचने पर ही साधक इसकी पूजा का अधिकारी होता है । सिद्धयोगी अंतर पूजा में प्रवेश करते हुए यंत्र की पूजा से प्रारंभ करता है जो ब्रह्म विज्ञान का  संकेत है ।
यंत्रों में बिन्दु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामितीय विज्ञान का असाधारण प्रयोग होता है ।
मास्को विश्वविद्यालय रूस के मूर्धन्य भौतिकी विद् एवं गणितज्ञ डॉ. अलेक्सेई कुलाई-चेव ने प्राचीन भारतीय कर्मकाण्डीय आकृतियों विशेषकर 'श्री यंत्र' के बारे में गहन खोज की है और पाया है कि यह एक जटिल आकृति है जो वृत्त में अंतनिर्हित नौ त्रिभुजों से बनी है । उच्च बीज गणित, सांख्यिक-विश्लेषण, ज्यामिती एवं कम्प्यूटर आदि की मदद से ही वे इस आकृति को बनाने में सफल हुए , उनका कहना है कि विश्व प्रपंच से संबंधित तंत्र की धारणायें बहुत कुछ विश्वोत्पति की 'विग-बैग' वाली वैज्ञानिक मान्यताओं तथा 'तप्त विश्व' के सिद्धान्तों से मिलती-जुलती हैं । यंत्र रचना का रहस्य वैज्ञानिक एवं गणितज्ञों के लिए अभी एक चुनौती बना हुआ है । यंत्रों के अर्थ, उद्देश्य एवं उनमें अंतनिर्हित प्रेरणाओं को यदि समझा और तदनुरूप साधना की जा सके तो सिद्धि अवश्य मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं ।




Tuesday, 4 June 2013

सनातन धर्म में शंख का महत्व



त्वं पुरा सागरोत्पन्न विष्णुना विधृत: करे। निर्मित: सर्वदेवैश्च पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते।
तव नादेन जीमूता वित्रसन्ति सुरासुरा:। शशांकायुतदीप्ताभ पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते॥
भारतीय संस्कृति में शंख (Conch) को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से  कृष्ण विष्णु  विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। समुद्री प्राणी का खोल शंख कितना चमत्कारी हो सकता है। जरूरत है इसके और अनुसन्धान वा वैज्ञानिक विश्लेषण की। उड़ीसा में जगन्नाथपुरी शंख-क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख सदृश है।
 हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म में शंख का महत्त्व अनादि काल से चला आ रहा है। शंख का हमारी पूजा से निकट का सम्बन्ध है। कहा जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के सदृश पवित्र हो जाता है। मन्दिर में शंख में जल भरकर भगवान की आरती की जाती है। आरती के बाद शंख का जल भक्तों पर छिड़का जाता है जिससे वे प्रसन्न होते हैं। जो भगवान कृष्ण को शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर उन्हें अर्ध्य देता है, उसको अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। शंख में जल भरकर ऊँ नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने से पापों का नाश होता है।
धार्मिक कृत्यों में शंख का उपयोग किया जाता है। पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, महायज्ञ एवं तांत्रिक क्रियाओं के साथ शंख का वैज्ञानिक एवं आयुर्वेदिक महत्त्व भी है। हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। कुछ गुह्य साधनाओं में इसकी अनिवार्यता होती है। शंख साधक को उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। वैदिक अनुष्ठानों एवं तांत्रिक क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार के शंखों का प्रयोग किया जाता है।
शंख हर युग में लोगों को आकर्षित करते रहे है। देव स्थान से लेकर युद्ध भूमि तक, सतयुग से लेकर आज तक शंखों का अपना एक अलग महत्त्व है। पूजा में इसकी ध्वनि जहाँ श्रद्धा वा आस्था का भाव जगाती है वहीं युद्ध भूमि में जोश पैदा करती है। रण भूमि में शंखों का पहली बार उपयोग देव-असुर संग्राम में हुआ था। देव दानवों के इस युद्ध में सभी देव-दानव अपने अपने शंखों के साथ युद्ध भूमि में आए थे। शंखों कि ध्वनि के साथ युद्ध शुरू होता और उसी के साथ ख़त्म होता था। तभी से यह माना जाता है कि हर देवी-देवता का अपना एक अलग शंख होता है।
साधारणत: मंदिर में रखे जाने वाले शंख उल्टे हाथ के तरफ खुलते हैं और बाज़ार में आसानी से ये कहीं भी मिल जाते हैं लेकिन क्या आपने कभी ध्यान से किसी लक्ष्मी के पूराने फोटो को ध्यान से देखा है इन चित्रो में लक्ष्मी के हाथ में जो शंख होता है वो दक्षिणावर्ती अर्थात सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले होते हैं। वामावर्ती शंख को जहां विष्णु का स्वरुप माना जाता है और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है। दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है। तंत्र शास्त्र के अनुसार सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले शंख को यदि पूर्ण विधि-विधान के साथ करके इस शंख को लाल कपड़े में लपेटकर अपने घर में अलग- अलग स्थान पर रखने से विभिन्न परेशानियों का हल हो सकता है। दक्षिणावर्ती शंख को तिज़ोरी मे रखा जाए तो घर में सुख-समृद्धि बढ़ती है। इसलिए घर में शंख रखा जाना शुभ माना जाता है।
शंख का वास्‍तु महत्‍व -
शंख का सिर्फ़ धार्मिक वा देव लोक तक ही महत्त्व नहीं है। इसका वास्तु के रूप में महत्त्व भी माना जाता है। वर्तमान समय में वास्तु-दोष के निवारण के लिए जिन चीज़ों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से यदि शंख आदि का उपयोग किया जाए तो कई प्रकार के लाभ हो सकते हैं। यह न केवल वास्तु-दोषों को दूर करता है, बल्कि आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह में विलंब जैसे अनेक दोषों का निराकरण एवं निवारण भी करता है। इसे पापनाशक बताया जाता है। अत शंख का विभिन्न प्रकार की कामनाओं के लिए प्रयोग किया जा सकता है। कहते है कि जिस घर में नियमित शंख ध्वनि होती है वहां कई तरह के रोगों से मुक्ति मिलती है। इनके पूजन से श्री समृद्धि आती है।
शंख पूजा का महत्त्व -
सभी वैदिक कार्यों में शंख का विशेष स्थान है। शंख का जल सभी को पवित्र करने वाला माना गया है, इसी वजह से आरती के बाद श्रद्धालुओं पर शंख से जल छिड़का जाता है। साथ ही शंख को लक्ष्मी का भी प्रतीक माना जाता है, इसकी पूजा महालक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली होती है। इसी वजह से जो व्यक्ति नियमित रूप से शंख की पूजा करता है उसके घर में कभी धन अभाव नहीं रहता। शास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण का स्वरूप कहे जाने वाले माह मार्गशीर्ष में उन्हीं के पंचजन्य शंख की पूजा का विशेष महत्त्व है। अगहन मास में शंख पूजा से सभी मनोवांछित फल प्राप्त हो जाते हैं। शंख को देवता का प्रतीक मानकर पूजा जाता है एवं इसके माध्यम से अभीष्ट की प्राप्ति की जाती है। शंख की विशिष्ट पूजन पद्धति एवं साधना का विधान भी है।  पंचजन्य की पूजा भी भगवान श्री हरि की आराधना के समान ही पुण्य देने वाली मानी गई है। विधि-विधान से इस माह शंख की पूजा की जानी चाहिए। जिस प्रकार सभी देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, वैसे ही शंख का भी पूजन करें। अर्चना करते समय इस मंत्र का जप करें -
त्वं पुरा सागरोत्पन्न विष्णुना विधृत: करे। निर्मित: सर्वदेवैश्च पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते।
तव नादेन जीमूता वित्रसन्ति सुरासुरा:। शशांकायुतदीप्ताभ पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते॥
-ध्वनि / शंख बजाना -
शंख नाद का प्रतीक है। नाद जगत में आदि से अंत तक व्याप्त है। सृष्टि का आरंभ भी नाद से ही होता है और विलय भी उसी में होता है। दूसरे शब्दों में शंख को  का प्रतीक माना जाता है, इसलिए पूजा-अर्चना आदि समस्त मांगलिक अवसरों पर शंख ध्वनि की विशेष महत्ता है। हिन्दू संस्कृति में पूजा और अनुष्ठान के समय शंख बजाने की परंपरा है जो बहुत पुरानी है। जैन, बौद्ध, शाक्त, शैव, वैष्णव आदि सभी संप्रदायों में शंख ध्वनि शुभ मानी गई है। शंख ध्वनि किसी का ध्यान आकर्षित करने या कोई संकेत देने के लिए की जाती है। दूसरी बात ये कि क्योंकि शंख पानी से निकलता है और पानी को जीवन से जोड़ा जाता है इसलिए इसे जीवन का प्रतीक भी माना जाता है। तीसरा ये कि किसी राजदरबार में राजा के आगमन की सूचना शंख बजाकर दी जाती थी और सबसे प्रचलित शंख ध्वनि युद्ध के प्रारंभ और अंत की सूचना के लिए की जाती थी। महाभारत युद्ध में शंख ध्वनि की विशद चर्चा है। कई योद्धाओं के शंखों के नाम भी गिनाए गए हैं जिसमें कृष्ण के पांचजन्य शंख की विशेष महत्ता बताई गई है। जहां तक तीन बार शंख बजाने की परंपरा है वह आदि, मध्य और अंत से जुड़ी है। वैदिक मान्यता के अनुसार शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है। कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक माना जाता है। इसके नाद से सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है और मस्तिष्क के विचारों में भी सकारात्मक बदलाव आ जाता है।
हमारे यहां शंख बजाना एक धार्मिक अनुष्ठान है। पूजा आरती, कथा, धार्मिक अनुष्टानों, हवन, यज्ञ आदि के आरंभ व अंत में भी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इसके पीछे धार्मिक आधार तो है ही, वैज्ञानिक रूप से भी इसकी प्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है। और शंख बजाने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है। शंख की पवित्रता और महत्त्व को देखते हुए हमारे यहां सुबह और शाम शंख बजाने की प्रथा शुरू की गई है। मंदिरों में नियमित रूप से और बहुत से घरों में पूजापाठ, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, कथा, जन्मोत्सव आदि अवसरों पर शंख बजाना एक शुभ परम्परा मानी जाती है। कहा जाता है कि शंख बजाने से घर के बाहर की आसुरी शक्तियां घर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाती हैं। पारद शिवलिंग, पार्थिव शिवलिंग एवं मंदिरों में शिवलिंगों पर रुद्राभिषेक करते समय शंख-ध्वनि की जाती है। आरती, धार्मिक उत्सव, हवन-क्रिया, राज्याभिषेक, गृह-प्रवेश, वास्तु-शांति आदि शुभ अवसरों पर शंख-ध्वनि से लाभ मिलता है। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार शंख बजाने से भूत-प्रेत, अज्ञान, रोग, दुराचार, पाप, दुषित विचार और गरीबी का नाश होता है। शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पंचजन्य शंख बजाया गया था। पितृ-तर्पण में शंख की अहम भूमिका होती है। शंख में ओम ध्वनि प्रतिध्वनित होती है, इसलिए ओम से ही वेद बने और वेद से ज्ञान का प्रसार हुआ। पुराणों और शास्त्रों में शंख ध्वनि को कल्याणकारी कहा गया है। इसकी ध्वनि विजय का मार्ग प्रशस्त करती है। शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है। आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है।

शंख के प्रकार

शंख कई प्रकार के होते हैं और सभी प्रकारों की विशेषता एवं पूजन-पद्धति भिन्न-भिन्न है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं। शंख की आकृति (उदर) के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं - दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है, वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है। जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है, वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बायें हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है। शंख का उदर दक्षिण दिशा की ओर हो तो दक्षिणावृत्त और जिसका उदर बायीं ओर खुलता हो तो वह वामावृत्त शंख है। मध्यावृत्ति एवं दक्षिणावृति शंख सहज रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं। इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं। हिन्दुओं के 33 करोड़ देवता हैं। सबके अपने- अपने शंख हैं। देव-असुर संग्राम में अनेक तरह के शंख निकले, इनमे कई सिर्फ़ पूजन के लिए होते है।
गणेश शंख / विघ्नहर्ता शंख -
समुद्र मंथन के समय देव- दानव संघर्ष के दौरान समुद्र से 14 अनमोल रत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें आठवें रत्न के रूप में शंखों का जन्म हुआ। जिनमें सर्वप्रथम पूजित देवगणेश के आकर के गणेश शंख का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गणेश शंख कहा जाता है। इसे प्रकृति का चमत्कार कहें या गणेश जी की कृपा की इसकी आकृति और शक्ति हू-ब-हू गणेश जी जैसी है। गणेश शंख प्रकृति का मनुष्य के लिए अनूठा उपहार है। निशित रूप से वे व्यक्ति परम सौभाग्यशाली होते हैं जिनके पास या घर में गणेश शंख का पूजन दर्शन होता है। भगवान गणेश सर्वप्रथम पूजित देवता हैं। इनके अनेक स्वरूपों में यथा- विघ्न नाशक गणेश, दरिद्रतानाशक गणेश, कर्ज़ मुक्तिदाता गणेश, लक्ष्मी विनायक गणेश, बाधा विनाशक गणेश, शत्रुहर्ता गणेश, वास्तु विनायक गणेश, मंगल कार्य गणेश आदि- आदि अनेकों नाम और स्वरुप गणेश जी के जन सामान्य में व्याप्त हैं। गणेश जी की कृपा से सभी प्रकार की विघ्न- बाधा और दरिद्रता दूर होती है। जहाँ दक्षिणावर्ती शंख का उपयोग केवल और केवल लक्ष्मी प्राप्ति के लिए किया जाता है। वही श्री गणेश शंख का पूजन जीवन के सभी क्षेत्रों की उन्नति और विघ्न बाधा की शांति हेतु किया जाता है। इसकी पूजा से सकल मनोरथ सिद्ध होते है। गणेश शंख आसानी से नहीं मिलने के कारण दुर्लभ होता है। सौभाग्य उदय होने पर ही इसकी प्राप्ति होती है। इस भौतिक अर्थ प्रधान प्रतिस्पर्धा के युग में बिना अर्थ सब व्यर्थ है। आर्थिक, व्यापारिक और पारिवारिक समस्याओं से मुक्ति पाने का श्रेष्ठ उपाय श्री गणेश शंख है। अपमानजनक कर्ज़ बाधा इसकी स्थापना से दूर हो जाती है। इस शंख की आकृति भगवान गणपति के सामान है। शंख में निहित सूंड का रंग अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य युक्त है। प्रकृति के रहस्य की अनोखी झलक गणेश शंख के दर्शन से मिलती है। विधिवत सिद्ध और प्राण प्रतिष्ठित गणेश शंख की स्थापना चमत्कारिक अनुभूति होती ही है। किसी भी बुधवार को प्रातः स्नान आदि से निवृत्ति होकर विधिवत प्राण प्रतिष्ठित श्री गणेश शंख को अपने घर या व्यापार स्थल के पूजा घर में रख कर धूप- दीप पुष्प से संक्षिप्त पूजन करके रखें। ये अपने आप में चैतन्य शंख है। इसकी स्थापना मात्र से ही गणेश कृपा की अनुभूति होने लगाती है। इसके सम्मुख नित्य धूप- दीप जलना ही पर्याप्त है किसी जटिल विधि- विधान से पूजा करने की जरुरत नहीं है। भगवान शंकर रुद्र शंख को बजाते थे। जबकि उन्होंने त्रिपुराशुर के संहार के समय त्रिपुर शंख बजाया था।
महालक्ष्मी शंख -
इसका आकार श्री यंत्र क़ी भांति होता है। इसे प्राक्रतिक श्री यंत्र भी माना जाता है। जिस घर में इसकी पूजा विधि विधान से होती है वहाँ स्वयं लक्ष्मी जी का वाश होता है। इसकी आवाज़ सुरीली होती है। विद्या क़ी देवी सरस्वती भी शंख धारण करती है। वे स्वयं वीणा शंख कि पूजा करती है। माना जाता है कि इसकी पूजा वा इसके जल को पीने से मंद बुद्धि व्‍यक्ति भी ज्ञानी हो जाता है।
दक्षिणावर्ती शंख -
स्वयं भगवान विष्णु अपने दाहिने हाथ में दक्षिणावर्ती शंख धारण करते है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के समय यह शंख निकला था। जिसे स्वयं भगवान विष्णु जी ने धारण किया था। यह ऐसा शंख है जिसे बजाया नहीं जाता, इसे सर्वाधिक शुभ माना जाता है।
महाभारत युद्ध और शंख -

http://bharatdiscovery.org/w/skins/common/images/magnify-clip.pngमहाभारत में युद्ध के आरंभ, युद्ध के एक दिन समाप्त होने आदि मौकों पर शंख-ध्वनि करने का ज़िक्र आया है। महाभारत काल में सभी योद्धाओं ने युद्ध घोष के लिए अलग-अलग शंख बजाए थे। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पंचजन्य शंख बजाया था। महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख को बजा कर युद्ध का जयघोष किया था। कहते है कि यह शंख जिसके पास होता है उसकी यश गाथा कभी कम नहीं होती। महाभारत के इसी युद्ध में अर्जुन ने देवदत्त नाम का शंख बजाया था। वहीं युधिष्ठिर के पास अनंत विजय नाम का शंख था, जिसे उन्होंने रण भूमि में बजाया था। इस शंख कि ध्वनि की ये विशेषता मानी जाती है कि इससे शत्रु सेना घबराती है और खुद कि सेना का उत्साह बढता है। भीष्म ने पोडरिक नामक शंख बजाया था। इस शंख की आवाज़ से कौरवों की सेना में हलचल मच गई थी। गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 15-19 में इसका वर्णन मिलता है --
पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय। पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर। नकुल सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। 
काश्यश्च परमेष्वास शिखण्डी च महारथ। धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजिताः।। 
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश पृथिवीपते। सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।
अर्थात् श्रीकृष्ण भगवान ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त और भीमसेन ने पौंड्र शंख बजाया। कुंती-पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय शंख, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख का नाद किया। इसके अलावा काशीराज, शिखंडी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट, सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंखों का नाद किया।

शंख की उत्पत्ति

शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में [विष्णु] ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के पश्चात्‌ सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई। भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है। भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। उससे निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।
शिव और शंख -
शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

शंख की स्थापना

प्राचीन काल से ही प्रत्येक घर में पूजा-वेदी पर शंख की स्थापना की जाती है। निर्दोष एवं पवित्र शंख को दीपावली, होली, महाशिवरात्रि, नवरात्र, रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य नक्षत्र आदि शुभ मुहूर्त में विशिष्ट कर्मकांड के साथ स्थापित किया जाता है। रुद्र, गणेश, भगवती, विष्णु भगवान आदि के अभिषेक के समान शंख का भी गंगाजल, दूध, घी, शहद, गुड़, पंचद्रव्य आदि से अभिषेक किया जाता है। इसका धूप, दीप, नैवेद्य से नित्य पूजन करना चाहिए और लाल वस्त्र के आसन में स्थापित करना चाहिए। शंखराज सबसे पहले वास्तु-दोष दूर करते हैं। मान्यता है कि शंख में कपिला (लाल) गाय का दूध भरकर भवन में छिड़काव करने से वास्तुदोष दूर होते हैं। परिवार के सदस्यों द्वारा आचमन करने से असाध्य रोग एवं दुःख-दुर्भाग्य दूर होते हैं। विष्णु शंख को दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि में स्थापित करने पर वहाँ के वास्तु-दोष दूर होते हैं तथा व्यवसाय आदि में लाभ होता है। शंख की स्थापना से घर में लक्ष्मी का वास होता है। स्वयं माता लक्ष्मी कहती हैं कि शंख उनका सहोदर भ्राता है। शंख, जहाँ पर होगा, वहाँ वे भी होंगी। देव प्रतिमा के चरणों में शंख रखा जाता है। पूजास्थली पर दक्षिणावृत्ति शंख की स्थापना करने एवं पूजा-आराधना करने से माता लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। इस शंख की स्थापना के लिए नर-मादा शंख का जोड़ा होना चाहिए। गणेश शंख में जल भरकर प्रतिदिन गर्भवती नारी को सेवन कराने से संतान गूंगेपन, बहरेपन एवं पीलिया आदि रोगों से मुक्त होती है। अन्नपूर्णा शंख की व्यापारी व सामान्य वर्ग द्वारा अन्नभंडार में स्थापना करने से अन्न, धन, लक्ष्मी, वैभव की उपलब्धि होती है। मणिपुष्पक एवं पांचजन्य शंख की स्थापना से भी वास्तु-दोषों का निराकरण होता है। शंख का तांत्रिक-साधना में भी उपयोग किया जाता है। इसके लिए लघु शंखमाला का प्रयोग करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।

शंख के वैज्ञानिक पहलू

§  शंख का महत्त्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक रूप से भी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख-ध्वनि के प्रभाव में सूर्य की किरणें बाधक होती हैं। अतः प्रातः व सायंकाल में जब सूर्य की किरणें निस्तेज होती हैं, तभी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इससे आसपास का वातावरण तता पर्यावरण शुद्ध रहता है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।
§  ऋषि श्रृंग की मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।
§  आयुर्वेदाचार्य डॉ.विनोद वर्मा के अनुसार रूक-रूक कर बोलने व हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल का पान करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा। दरअसल मूकता व हकलापन दूर करने के लिए शंख-जल एक महौषधि है।
§  हृदय रोगी के लिए यह रामबाण औषधि है। दूध का आचमन कर कामधेनु शंख को कान के पास लगाने से `' की ध्वनि का अनुभव किया जा सकता है। यह सभी मनोरथों को पूर्ण करता है।
§  यजुर्वेद में कहा गया है कि यस्तु शंखध्वनिं कुर्यात्पूजाकाले विशेषतः, वियुक्तः सर्वपापेन विष्णुनां सह मोदते अर्थात पूजा के समय जो व्यक्ति शंख-ध्वनि करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवानविष्णु के साथ आनंद करता है।
§  1928 में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि इसकी ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने कि उत्तम औषधि है।
§  ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।
§  तानसेन ने अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्ति प्राप्त की थी। अथर्ववेद के चतुर्थ अध्याय में शंखमणि सूक्त में शंख की महत्ता वर्णित है।
§  अथर्ववेद
 के अनुसार, शंख से राक्षसों का नाश होता है - शंखेन हत्वा रक्षांसि। भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है।
§  यजुर्वेद के अनुसार युद्ध में शत्रुओं का हृदय दहलाने के लिए शंख फूंकने वाला व्यक्ति अपिक्षित है। गोरक्षा संहिता, विश्वामित्र संहिता, पुलस्त्य संहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्ती शंख को आयुर्वद्धक और समृद्धि दायक कहा गया है।