Wednesday, 8 September 2021

मोती डूंगरी गणेश मंदिर, जयपुर



                                       

               मोती डूंगरी गणेश मंदिर, जयपुर

मोती डूंगरी पहाडी की तलहटी में स्थित सुविख्यात विशाल गणेश मंदिर का निर्माण सन 1750 से 1768 के मध्य जयपुर के महाराजा माधवसिंह प्रथम के शासन काल में हुआ था l गणेश प्रतिमा के समक्ष अवस्थित मूषक (चूहे) के नीचे लगे शिलालेख के अनुसार मावली के जयराम पालीवाल द्वारा वि.सं.1818 ई.सन 1762 की गणेश चतुर्थी को गणेश जी की विशाल मूर्ती की प्राण प्रतिष्ठा की गई थी l

मंदिर की स्थापत्य विशेषताएं :

मोती डूंगरी पहाड़ी की तलहटी में सड़क से लगभग 10 फुट ऊंचाई पर निर्मित गणेश मंदिर जयपुर के अन्य गणेश मंदिरों से अधिक भव्य एवं कलात्मक है किन्तु यह प्राचीन निर्माण न होकर जीर्णोद्धार के समय प्रकीर्ण शिल्प है, मंदिर निर्माण के समय वाले मंदिर एवं वर्तमान मंदिर में बहुत अंतर है जो कि बादमें हुए परिवर्तन का रूप है l विशाल संगमरमर की सीढियों से चढ़ने पर मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार आता है जो लगभग सात फुट चौड़ा और दस फुट ऊंचा है जिसके दोनों ओर पांच फीट ऊंचे और छै इंच चौड़े गोल कलात्मक स्तंभों पर संगमरमर की ढलवां मेहराबदार छतरी बनी है l प्रत्येक स्तम्भ के नीचे चौकोर चौकी के ऊपर चक्र पर गोल बारह कोणी लघु गुम्बद पर फिर चक्र बना है l इसके ऊपर 9 इंच के ऊर्ध्व कमल पर बारह कोणी स्तम्भ के ऊपर अधोमुखी कमल पर चक्र, नागवल्लरी और ऊर्ध्व कमल उत्कीर्ण है तथा इसके ऊपर चौकोर चौकी से बहुत सुन्दर मेहराबें उठाई गई हैं l मेहराब के नीचे उलटे कमल के फूलों की लटकन के ऊपर पत्र शिल्प के बाद यह मेहराब पूरे द्वार के बाहरी भाग को आवृत्त करती है l मेहराब के ऊपर संगमरमर का ही ढलवां 6 इंच का निकासू छज्जा बना है l इसके चार फीट अन्दर मंदिर का भीतरी प्रवेश द्वार बना हुआ है जिसकी दोनों ओर बाहियों पर मंदिरों के परम्परागत शिल्प के अनुरूप पत्र वल्लरी की परिक्रमा और टोडियों के तिकोनों में कमल पत्र उत्कीर्ण हैं l मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर 4x6 फीट के दो दो अन्य प्रवेश द्वार बने हुए हैं जो जीर्णोद्धार के समय बनाए गए हैं जिनके भी चारों ओर 9 इंच चौड़ी कमल वल्लरी उत्कीर्ण है l इन द्वारों के ऊपर संगमरमर की जालियों का कलात्मक सुन्दर काम है जो मंदिर के बाहरी दृश्य को भव्यता प्रदान करता है l

जगमोहन :

मंदिर के भीतर 6 फीट चौड़ी गैलेरी के आगे 2x1 वर्ग फुट के 6 आयताकार स्तंभों पर सात मेहराबदार दरवाजे बने हैं जिनके ऊपर अन्दर की ओर भी इसी प्रकार स्तंभों पर मेराब्दार सात दरवाजे बने हैं जिनके पीछे गैलेरी बनी हुई है l गर्भ गृह के सामने मध्य में लगभग 20x25 फुट जगमोहन बना हुआ है जिसमें खड़े होकर भक्तगण दर्शन-वंदन करते हैं l जगमोहन की विशाल छत प्लास्टर ऑफ़ पेरिस का रंगीन कलात्मक भव्य काम किया हुआ है जिसमें रंगीन फूल पत्तियों के सघन काम के बीच पक्षियों की आकृत्तियां अंकित हैं l

जगमोहन की उत्तरी दीवार पर पांच फुट ऊँचे और चार फुट चौड़े विशाल चित्र में गणेश जी ऋद्धि सिद्धि के साथ विराजमान हैं इस चित्र में स्वर्ण वर्क का भव्य काम किया हुआ है शोभा यात्रा के अवसर पर इसी चित्र को रथ में  विराजित किया जाता है l इसके सामने दक्षिणी दीवार पर भी इसी आकार के चित्र में शिव-पार्वती एवं गणेश की विभिन्न लीलाओं का चित्रण किया गया है l जगमोहन की एक दीवार पर गणेश जी की अष्टोत्तर नामावली  (108 नाम ) अंकित हैं जिसका श्रद्धालुगण पाठ किया करते हैं l

गर्भगृह

जगमोहन के सामने प्रथम पूज्य गणेश जी का गर्भगृह है जिसके मध्य में वामशुंडी गणेश जी की लगभग पांच फुट चौड़ी और छै फुट ऊँची विशाल भव्य एवं आकर्षक प्रतिमा विराजमान है गणेश जी का इतना विशाल विग्रह प्राय: बहुत कम देखने को मिलता है l बैठी हुई गणेश प्रतिमा का वाम घुटना नीचे और दाहिना घुटना ऊपर मुदा हुआ है मानो गणेश जी वीरासन मुद्रा में विराजित हैं l प्रतिमा के विशाल मस्तक की नीचे धनुषाकार भौंहों के साथ हाथी जैसे छोटे – कुंचित नेत्र हैं, विशाल सूंड बाँई ओर घूमी हुई है एक दन्त होने के कारण बांये दांत का चिन्ह ही दृष्टव्य है दाहिने दांत पर चांदी चढी हुई है प्रतिमा के आकार के अनुरूप ही विशाल कर्ण हैं चतुर्भुजी प्रतिमा उपरी दाहिने हाथ में अंकुश, बांये हाथ में परशु है, नीचे घुटने पर टिके दाहिने हाथ में मोदक एवं बाएं हाथ में लघु दंड है l आपाद-मस्तक सिंदूर चोले से सुसज्जित गणेश जी के पैर में रजत कडा शोभित है तथा चरणों की उँगलियों के स्पष्ट दर्शन होते हैं l विग्रह के पीछे पीठ से चरणों तक प्रस्तर पीठिका भी विग्रह का ही भाग है प्रतिमा की विशालता के अनुरूप उदर तो विशाल होना ही था जो प्राय: सभी गणेश प्रतिमाओं में दिखाई देता है l मस्तक पर स्वर्ण-रजत मुकुट और रत्न जडित कलंगी शोभित रहती है l गणेश विग्रह के पृष्ठ भाग में दीवार लगभग 8x8 वर्ग फीट का विशाल प्रभामंडल निर्मित है जिसमें बड़ी बड़ी किरणें भि दिखाई देती हैं l सुनहरे प्रभामंडल की यह पृष्ठभूमि गणेश विग्रह को और विशालता एवं भव्यता प्रदान करती है l गर्भ गृह में तीनों ओर दिव्वारों पर स्वर्ण-रजत पत्तर जड़े हुए हैं जिससे गर्भ गृह स्वर्ण मंडित लगता है l विग्र के पीछे गणेश जी के पुत्र शुभ और लाभ के लगभग तीन तीन फुट के संगमरमरी विग्रह हैं जिनके नेत्र विशाल,तीखी नासिका भरे कपोल और स्मित अधर बहुत सुन्दर दीखते हैं l दाहिनी ओर रजत चौकियों पर शालिग्राम सहित कुछ अन्य छोटी छोटी मूर्तियाँ पूजित हैं जिन पर दर्शकों का ध्यान कम ही जाता है l मुख्य विग्रह के सामने दोनों ओर ऋद्धि-सिद्धि की लगभग पांच पांच फुट की सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियाँ हैं इनका केश विन्यास, तीखी शुक-नासिका स्मित अधर भरे कपोल गोल ठोडी बहुत सुन्दर है इन प्रतिमाओं के नेत्र उभरे हुए ओर ओर एक हाथ में चंवर निर्मित है l यह प्रतिमाएं वस्त्राच्छादित रहती हैं जो स्त्री शोबित मर्यादा का प्रतीक हैं l

गर्भगृह के बाहर गणेश जी के समक्ष उनके वाहन मूषक अपने इष्ट की ओर मुखातिब होकर विराजमान हैं l बाहर के भाग में दीपस्थान बने हुए हैं तथा गोखों के अन्दर दीपस्तंभ हैं जिनके जालीदार वातायनों के अन्दर अखंड ज्योति प्रज्वलित है l गर्भगृह की बाहरी मेहराब के ऊपर मेहराबदार संगमरमरी छज्जे पर कलात्मत छतरी बनी हुई है जिसके शीर्ष पर पीतल के कलश लगे हुए हैं l गर्भ गृह के बाहर दोनों ओर दीवारों में उत्तर में अष्टभुजी गणेश की कलातमक मूर्ती दीवार में स्थापित है, दक्षिणी दीवार पर ऊपर शिव पार्वती कार्तिकेय और गणेश के सुन्दर विग्रह उत्कीर्ण हैं l मोती डूंगरी का यह उत्तुंग और भव्य मंदिर शिल्प कला का अद्भुत संगम है l जीर्णोद्धार से पूर्व मंदिर का मूलरूप कुछ अलग था जिसमें गर्भगृह में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के अतिरिक्त न तो आंतरिक न ही बाहरी भव्यता ऐसी थी जो आज देखाई दे रही है, दर्शनार्थी भी बुधवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में बहुत कम ही आते थे l मंदिर के महंत परिवार के निवास स्थान (हवेली) के अतिरिक्त मंदिर परिसर के आसपास न तो इतनी आबादी थी न ही चहल पहल l न इतनी दुकानें थी न ही बाहरी क्षेत्र में अन्य मंदिर थे l यह परिवर्तन विगत पचास - साठ  वर्षों में हुआ है l इससे पूर्व आसपास वन क्षेत्र था और जंगली पशुओं का भय भी व्याप्त था l    

मंदिर से सम्बंधित जनश्रुतियां एवं इतिहास :

जनश्रुतियों के अनुसार गणेश जी की इस भव्य मूर्ती का निर्माण गुजरात में किसी मूर्तिकार/शिल्पकार ने किया था तथा इसे उदैपुर जिले के मावली नामक स्थान से जयपुर लाया गया था l मावली के सेठ जयराम पल्लीवाल की पत्नी को स्वप्न में दर्शन देकर गणेश जी ने उन्हें जयपुर लाने की आज्ञा दी थी l बैलगाड़ी में जयपुर लाते समय गाडी के पहिये यहाँ फंस गए, काफी प्रयासों के बाद भि पहिए नहीं निकलने पर गणपति को जयपुर के समीप इस वन में मोती डूंगरी किले के नीचे तलहटी में ही प्रतिष्ठापित कर दिया गया था l इस जनश्रुति के अतिरिक्त तथ्यात्मक सत्य यह है कि जयपुर महाराजा माधव सिंह प्रथम के शासन काल (सन 1750- 1768) गणेश जी की यह प्रतिमा उदैपुर के मावली से लाई गई थी जिसका उल्लेख प्रतिमा के सामने गणेश जि वाहन स्वरुप मूषक (चूहे) की मूर्ती पर उत्कीर्ण किया हुआ है l माधवसिंह मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह की बहिन का पुत्र था l मेवाड़ महाराणा अमरसिंह ने अपनी पुत्री चन्द्रकंवर के साथ जयपुर के महाराजा जयसिंह का विवाह करते समय यह शर्त रखी थी कि उससे उत्पन्न पुत्र ही जयसिंह का उत्तराधिकारी होगा किन्तु संयोगवश चन्द्रकंवर से पूर्व महाराजा की दूसरी पत्नी सुखकुंवर से ईश्वरीसिंह उत्पन्न हो गया ज्येष्ठ पुत्र के राज्याधिकार की पारम्परिक व्यवस्था के कारण जयसिंह की मृत्यु के बाद ईश्वरीसिंह जयपुर का महाराजा बना परिणामस्वरूप उत्तराधिकार युद्ध हुआ जिसमें विजयी होकर माधवसिंह जयपुर का महाराजा बन गया, कहा जाता है कि गणेश जी की कृपा से राज्य प्राप्त होने पर माधवसिंह ने मावली से लाकर गणेश जी की इस मूर्ति को जयपुर में प्रतिष्ठापित करवाया l मोती डूंगरी के किले में पहले से ही शंकर जी का मंदिर होने के कारण डूंगरी की तलहटी में शिव पुत्र गणेश का मंदिर बनवाया जाना अधिक उपयुक्त लगने के कारण गणेश जी को यहीं विराजमान करवाया गया l

एक अन्य मान्यता के अनुसार जयपुर के उत्तर में गैटोर की पहाड़ी पर गढ़ गणेश मंदिर निर्मित है जिसमें आर्क (आकडे) के गणेश जी की मूर्ती सवाई जयसिंह ने प्रतिष्ठापित करवाई थी इसका उल्लेख श्रीकृष्ण भट्ट रचित ईश्वरविलास महाकाव्य में उपलब्ध है इसके अनुसार गढ़ गणेश मंदिर मोती डूंगरी गणेश मंदिर से प्राचीन है ये दोनों मंदिर एक सीध में हैं l मोती डूंगरी से गढ़ गणेश और वहां से मोती डूंगरी गणेश मंदिर कई मील की दूरी होने पर भी एक सीध में दिखाई देते थे अब कुछ ऊंची इमारतों के कारण कुछ अवरोध हो सकता है l लगभग दो सौ सत्तर वर्ष पूर्व जयपुर शहर केवल परकोटे (चारदीवारी) के भीतर ही सीमित था l इसके बाहर सघन वन-जंगल क्षेत्र था और शेर,बाघ आदि हिंसक पशु विचरण करते थे गणेश मंदिर के आसपास घना वन क्षेत्र होने के कारण इस क्षेत्र में भी हिंसक पशु विचरण करते दिखाई देते थे ऐसा मेरे स्वर्गीय नाना जी श्री श्योनाथ जी जोकि गणेश मंदिर के तत्कालीन भंडारी थे और पुरानी बस्ती से प्राय: पैदल ही मंगला आरती के समय गणेश मंदिर जाया करते थे, ने भी हमें बताया था, अनेकों बार मार्ग में उन्हें शेर पानी पीते भी दिखाई दिए थे किन्तु गणेश जी की कृपा से कभी कोई अनहोनी दुर्घटना नहीं हुई बचपन में हमें भी उनके साथ कभी कभी मंदिर जाने का अवसर मिलता था l नाना जी  ने अपना शरीर भी मंदिर परिसर में ही त्यागा था l  उस समय मंदिर भी बहुत छोटा और पौराणिक शिल्प में बना हुआ था वर्तमान भव्यता नहीं थी तथा श्रद्धालु भक्त भी बुधवार अथवा पर्व या वैवाहिक अवसरों के अतिरिक्त बहुत कम संख्या में ही दर्शनार्थ जाते थे l कालान्तर में जयपुर के आसपास के सामंतों एवं प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों ( सेठ-साहूकार) व राज दरबार के प्रतिष्ठित घरानों को गणेश मंदिर के आसपास बसाने के लिए महाराजा ने जमीनें दे कर उन्हें बसाने का उपक्रम किया जिससे परकोटे के बाहर वर्तमान मोती डूंगरी रोड के दोनों और बाग़-बगीचे और विशाल भवनों-कोठियों का निर्माण हुआ और कुछ चल पहल प्रारम्भ हुई l वर्मान में तो मंदिर जयपुर शहर के मध्य में आ चुका है l गत सत्तर वर्षों में भक्ति भावना की अभिवृद्धि के कारण और मंदिर शहर के मध्य में होने के कारण मोती डूंगरी के गणेश जी जन-जन के आराध्य बन गए हैं l अब तो प्रतिदिन ही मेले जैसा माहोल लगता है l वैवाहिक अवसरों एवं बुधवार को तो मंदिर परिसर ही नहीं बाहर भी भक्त श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है, मान्यता है कि विवाह का प्रथम निमंत्रण मोती डूंगरी गणेश जी को ही दिया जाता है और विवाहोपरांत गठ-जोड़ ( नव दम्पति) को यहीं ढोक लगवाई जाती है ताकि उनका दाम्पत्य जीवन सदैव सुखद एवं समृद्ध रहे l इसके अतिरिक्त नए वाहनों की पूजा भी कराई जाती है lअब तो मंदिर के आसपास अनेक अतिक्रमण भी दिखाई देते हैं l पास ही नव निर्मित लक्ष्मी नारायण मंदिर (बिडला मंदिर) के कारण भी श्रद्धालुओं – दर्शनार्थियों की संख्या में अभिवृद्धि हुई है l पहले जहां केवल एक मात्र गणेश मंदिर ही था अब मंदिर के सामने कुछ और मंदिर भी बन गए हैं l

मंदिर की सेवा - पूजा

मंदिर के महंत दाधीच ब्राम्हण हैं, वर्तमान महंत श्री कैलाश चन्द्र जी के पूर्वज जौहरी बाज़ार स्थित चाँपावत मंदिर के सुप्रसीद्ध कथाभट्ट परिवार के वंशज थे जयपुर के महाराजा ने इन्हें मंदिर की सेवा-पूजा के लिए नियुक्त कर दिया था l मंदिर की वर्तमान भव्यता में राज परिवार के योगदान का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है l मंदिर का वर्तमान स्वरुप एवं इसका वैभव महंत परिवार के प्रयासों के फलस्वरूप गणेश भक्तों के आर्थिक सहयोग से ही संभव हो पाया है l

गणेश मंदिर के पर्व एवं उत्सव :

प्रतिदिन मंगला से शयन आरती की झांकियों के अतिरिक्त प्रतिमास पुष्य नक्षत्र में अथार्वाशीर्ष मन्त्रों के साथ दुग्धाभिषेक का विशेष आयोजन नियमित रूप से होता है l गणेश चतुर्थी मंदिर का सबसे बड़ा वार्षिकोत्सव-पर्व होता है, विगत कुछ वर्षों से गणेश चतुर्थी के अगले दिन विशाल शोभा यात्रा निकाली जाती है जिसमें गणेश जी के  विशाल चित्रपट के अतिरिक्त अन्य अनेक झांकियां सम्मिलित होकर मंदिर से गढ़ गणेश मंदिर तक जाती हैं मानों गणेश जी नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं l इसके अतिरिक्त संकष्ट चतुर्थी, फागोत्सव, अन्नकूट, एवं समय समय पर सवा लाख मोदकों के भोग की विशेष झांकी मंदिर के उत्सवों में सम्मिलित हैं l   

गिरिराज श्रोत्रिय जयपुर 

गणेश चतुर्थी २०२१ 




Thursday, 25 February 2021

कुशा अथवा कुश

 कुशा का आध्यात्मिक एवं पौराणिक महत्त्व


अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है। 


इसको कुश ,दर्भअथवा ढाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है। यह पौधा पृथ्वी लोक का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है। 


मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। 


इसके सिरे नुकीले होते हैं उखाडते समय सावधानी रखनी पडती है कि जड सहित उखडे और हाथ भी न कटे। कुशल शब्द इसीलिए बना ।" ऊँ हुम् फट " मन्त्र का उच्चारण करते हुए उत्तराभिमुख होकर कुशा उखाडी जाती है ।


भारत में हिन्दू लोग इसे पूजा /श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं । 

कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के  समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् की सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। कुशा प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों की अमावश्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं। 


केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।


केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं।


 कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका बना कर पहनते हैं। 


कुशा आसन का महत्त्व : - कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। -देवी भागवत 19/32 अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता।


 उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है। 


इसपर बैठकरसाधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्घि होती है। साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है। 


कुशा की पवित्री का महत्त्व : - कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। 


सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।


कुशा जिसे सामन्य घांस समझा जाता है उसका बहुत ही बड़ा महत्व है , कुशा के अग्र भाग जोकी बहुत ही तीखा होता है इसीलिए उसे कुशाग्र कहते हैं l


तीक्ष्ण बुद्धि वालो को भी कुशाग्र इसीलिए कहा जाता है.


कुशा महिलाओं की सुरक्षा करनें में राम बाण है जब लंका पति रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका ले गया , उसके बाद वह बार बार उन्हें प्रलोभित करने जाता था और माता सीता "इस कुशा को अपना सुरक्षा कवच बनाकर "" उससे बात करती थी , जिसके कारण रावण सीता के निकट नहीं पहुँच सका l


आज भी मातृ शक्ति अपने पास कुशा रखे तो अपने सतीत्व की रक्षा सहज रूप से कर सकती है क्योंकि कुशा में वह शक्ति विद्यमान है जो माँ बहिनों पर कुदृष्टि रखने वालों को उनके निकट पहुंचने भी नहीं देती l


 जो माँ या बहिन मासिक विकार से परेशान है उन्हें कुशा के आसन और चटाई का विशेष दिनों में प्रयोग करना चाहीये .


पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों में कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। यह एक प्रकार की घास है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है।


महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं। 


महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए। 


कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा। 


 विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे। 


गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया। 


यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए। 


उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा। 


कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गई इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है.l


 ‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।


जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे महान असुर हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा। उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे। वहीं कुश के रूप में प्रकट हुए। 


कुश ऊर्जा की कुचालक है। इसलिए इसके आसन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने वाले साधन की शक्ति का क्षय नहीं होता। परिणामस्वरूप कामनाओं की अविलंब पूर्ति होती है। 


 वेदों ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।


कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।


हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों में अक्सर कुश (विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसका धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है। 


कुश जब पृथ्वी से उत्पन्न होती है तो उसकी धार बहुत तेज होती है। असावधानी पूर्वक इसे तोडऩे पर हाथों को चोंट भी लग सकती है। 


पुरातन समय में गुरुजन अपने शिष्यों की परीक्षा लेते समय उन्हें कुश लाने का कहते थे। कुश लाने में जिनके हाथ ठीक होते थे उन्हें कुशल कहा जाता था अर्थात उसे ही ज्ञान का सद्पात्र माना जाता था।


वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता। 


पांच वर्ष की आयु के बच्चे की जिव्हा पर शुभ मुहूर्त में कुशा के अग्र भाग से शहद द्वारा सरस्वती मन्त्र लिख दिया जाए तो वह बच्चा कुशाग्र बन जाता है। 


कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है।


 कुशोत्पाटिनी या कुशाग्रहणीअमावस्या ! 

भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है। खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है। 


ऐसे दें कुश को निमंत्रण


कुश के पास जाएं और श्रद्धापूर्वक उससे प्रार्थना करें, कि हे कुश कल मैं किसी कारण से आपको आमंत्रित नहीं कर पाया था जिसकी मैं क्षमा चाहता हूं। लेकिन आज आप मेरे निमंत्रण को स्वीकार करें और मेरे साथ मेरे घर चलें। फिर आपको ऊं ह्रूं फट् स्वाहा इस मंत्र का जाप करते हुए कुश को उखाडऩा है उसे अपने साथ घर लाना है और एक साल तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।

पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि।

कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।।

अत: प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय करना चाहिए।


दस प्रकार के होते हैं कुश


शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है-

कुशा, काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका।

गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा, सबल्वजा।।

यानि कुश, काश , दूर्वा, उशीर, ब्राह्मी, मूंज इत्यादि कोई भी कुश आज उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो , एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है। इसका इस्तेमाल ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए होता है, कुश की पवित्री उंगली में पहनते हैं तो वहीं कुश के आसन भी बनाए जाते हैं।


कौन सा कुश उखाड़ेंं


कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।


संयम, साधना और तप के लिए आज का दिन श्रेष्ठ


कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से  छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है। भगवान विष्णु की आराधना की जाती है यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है. जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है।


कुशाग्रहणी अमावस्या का विधि-विधान


कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये कुश एकत्र लेते हैं. प्रत्येक धार्मिक कार्यो के लिए कुशा का इस्तेमाल किया जाता है. शास्त्रों में भी दस तरह की कुशा का वर्णन प्राप्त होता है. जिस कुशा का मूल सुतीक्ष्ण हो, इसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है. कुशा तोड़ते समय हूं फट मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

अघोर चतुर्दशी के दिन तर्पण कार्य भी किए जाते हैं मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है. कुश अमावस्या के दिन किसी पात्र में जल भर कर कुशा के पास दक्षिण दिशाकी ओर अपना मुख करके बैठ जाएं तथा अपने सभी पितरों को जल दें, अपने घर परिवार, स्वास्थ आदि की शुभता की प्रार्थना करनी चाहिए।


कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व

शास्त्रों में में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है. इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष में चलने वाला पन्द्रह दिनों के पितृ पक्ष का शुभारम्भ भादों मास की अमावस्या से ही हो जाती है!