Saturday, 28 July 2012

हमारी चारधाम यात्रा- उत्तरकाशी -गुप्तकाशी

Kashi Vishwnath Temple, Uttarkashi

Vishwnath Temple, Guptkashi

Kashi Vishwnath Temple, Uttarkashi

Shakti Stambh (Trishool) Shakti Mandir, Uttarkashi
हमारी चारधाम यात्रा- उत्तरकाशी -गुप्तकाशी 
हमारी चारधाम यात्रा के तीसरे चरण में हमें गंगोत्री से केदारनाथ जाना था, हम लोग गंगोत्री मंदिर एवं अन्य स्थानीय दर्शनीय स्थानों में घूम कर 15 जून 2012 को मध्यान्ह गंगोत्री से केदारनाथ के लिए रवाना हुए जो यंहा से 270 किलोमीटर की दूरी पर है इस मार्ग के मध्य कुछ दर्शनीय स्थानों का विवरण देना आवश्यक मानते हुए मैं आपको उत्तरकाशी एवं गुप्तकाशी के विषय में बताना चाहूँगा l गंगोत्री यात्रा का विवरण मैं अपने 19 जुलाई के आलेख में दे चुका हूँ l

उत्तरकाशी - 

गंगोत्री से उत्तरकाशी का सफ़र 100 किलोमीटर का है पूरा मार्ग भागीरथी नदी एवं पहाड़ी वादियों एवं घाटियों के साथ चलता है,गंगोत्री से हम भैरूघाटी,धराली,हरसिल,गंगनानी,भटवाडी होते हुए सायंकाल 7 बजे उत्तरकाशी पहुंचे l
उत्तरकाशी उत्तराखंड राज्य का बड़ा एवं महत्वपूर्ण जिला है जो भागीरथी नदी के किनारे पर बसा हुआ है l यंहा अनेक मंदिर एवं अध्यात्मिक आश्रम बने हुए हैं,अच्छे होटल एवं धर्मशालाएं उपलब्ध हैं l यंहा का काशी विश्वनाथ मंदिर विख्यात है जिसकी वही मान्यता है जो वाराणसी (काशी) के विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की है,यह शिवलिंग स्वयंभू शिवलिंग है जो जमीन से स्वयं प्रकट हुआ है l मंदिर विशाल एवं दर्शनीय है, मंदिर परिसर में ही शक्ति मंदिर भी है जिसमें दुर्गा जी के अतिरिक्त एक शक्तिस्तंभ (त्रिशूल) की पूजा अर्चना की जाती है l इस शक्ति स्तम्भ के विषय में मान्यता है कि देवताओं और असुरों के मध्य जब युद्ध हुआ तो असुरों के विनाश के लिए देवी दुर्गा ने अपना यह त्रिशूल स्वर्ग से पृथ्वी पर फेंका था जो अब यंहा शक्ति स्तम्भ के रूप में विद्यमान है, अष्टधातु से निर्मित यह त्रिशूल 6 मीटर लम्बा एवं नीचे से 90 सेंटीमीटर (गोलाकार) चौड़ा है इसे सुनहरे रंगीन वस्त्रों से सुसज्जित रखा जाता है l उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण प्रशिक्षण केंद्र है जंहा पर्वतारोहियों को विशेषकर बर्फ के पहाड़ों में पर्यटन के लिए प्रशिक्षित किया जाता है l उत्तरकाशी के निकट ही सरकार का मनेरी बांध है जो विद्युत् उत्पादन परियोजना से सम्बंधित है,पर्यटन की दृष्टि से बांध दर्शनीय है,गंगोत्री जाते समय हमने यंहा बांध के जल प्रपात का भरपूर आनंद लिया था l उत्तरकाशी का परशुराम मंदिर भी भव्य एवं दर्शनीय है l

गुप्तकाशी - 

उत्तरकाशी में विश्वनाथ मंदिर के दर्शन कर हम गुप्तकाशी के लिए निकले जो यंहा से लगभग 170 किलोमीटर है, रात अधिक हो जाने से हमें उत्तरकाशी से गुप्तकाशी-केदारनाथ मार्ग पर लगभग 25 किलोमीटर दूर नागानी सौड़ (चिन्याली मोड़) पर होटल कृष्ण पैलेस में ही रात्रि विश्राम करना पड़ा l 16 जून को प्रात: 8 बजे हम अपने वाहनों से गुप्तकाशी के लिए रवाना हुए, दूरी एवं पहाड़ी घाटियों के कारण वाहन धीमी गति से ही चलाने होते हैं,सड़कें भी सकड़ी और टूटी हुई थी l रात्रि में लगभग 9 बजे जब हम गुप्तकाशी पहुंचे तो बाज़ार लगभग बंद हो चुके थे l रात्रि में 8 बजे बाद गुप्तकाशी से वाहनों एवं यात्रियों को आगे नहीं जाने दिया जाता, पुलिस प्रशाशन बैरिएर लगा कर मार्ग बंद कर देता है क्योंकि यंहा से आगे का मार्ग दुर्गम और जंगलों से भरा होने के कारण दुर्घटना की संभावना रहती है l एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर हमने यंहा के भागीरथ पैलेस होटल में रात्रि विश्राम किया l

गुप्तकाशी का सम्बन्ध पांडवों एवं शिव जी से है तथा जैसा कि नाम है इसके साथ कुछ गुप्त तथ्य जुड़े हुए हैं l यह क़स्बा विशेष बड़ा नहीं है किन्तु उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले का एक रमणीक एवं ऐतिहासिक नगर है जो मन्दाकिनी नदी के किनारे पर बसा हुआ है l यंहा से हिमालय पर्वतों क़ी चौखम्बा चोटी के दृश्य अति मनमोहक है, सूर्य क़ी धूप से पर्वत पर पसरी बर्फ उसे ऐसा चमकदार बना देती है कि ऐसा लगता है मानो चांदी का पहाड़ हो l मन्दाकिनी नदी का बहता पानी कर्ण प्रिय संगीत का एहसास कराता है, आस पास अनेक झरने एवं प्राकृतिक उद्यान पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं l

मान्यताएं - 

गुप्तकाशी के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं , एक मान्यता के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद भगवान् श्री कृष्ण एवं अन्य महर्षियों ने पांडवों को उनके द्वारा युद्ध में की गई हत्याओं के लिए प्रायश्चित करने का परामर्श दिया,पांडवों ने इसका उपाय पूछा तो उन्हें भगवान आशुतोष श्री शिवजी की आराधना करने को कहा गया क्योंकि वही उन्हें उनके पापों से मुक्ति प्रदान कर सकते थे l पांडवों ने ऐसा ही किया किन्तु शिव जी पांडवों से कुरुक्षेत्र के महाभारत युद्ध के कारण कुपित थे इसलिए पांडवों के समक्ष प्रकट नहीं होना चाहते थे l पांडवों की दृष्टि से ओझल होने के लिए शिवजी ने नंदी बैल का रूप धारण कर लिया ताकि पांडव उन्हें न तो ढूंढ सकें न ही पहचान सकें l पांडवों ने शिव जी को ढूँढने का बहुत प्रयास किया किन्तु शिवजी गुप्त रूप से इस स्थान (गुप्तकाशी) पर आकर छुप गए l अन्ततोगत्वा पांडवों ने यंहा आकर नंदी बैल के रूप में छिपे शिवजी को पहचान लिया और उन्हें पकड़ना चाहा शिवजी ने यह जानकर दौड़ने का प्रयास किया किन्तु भीम ने नंदी बैल रूपी शिव के पिछले दोनों पांव कास कर पकड़ लिए,शिवजी स्वयं पृथ्वी (जमीन) पर बनी एक गुफा में प्रवेश कर गए किन्तु अपने शरीर का पिछला भाग वे भीम से छुड़ा न पाए और बाद में पांच विभिन्न स्थानों पर शरीर के भिन्न भागों के रूप में प्रकट हुए ये पांच स्थान अब पंच केदार के के रूप में विख्यात हैं जन्हा शिवजी की पूजा उनके विभिन्न अंगो के रूप में की जाती है जिनके विषय में मैं अपनी केदारनाथ यात्रा के आलेख में जानकारी दूंगा l पांडवों ने केदारनाथ से पूर्व उत्तरकाशी में भगवन शिव की आराधना की l गुप्तकाशी में भगवन शिव के अंतर्ध्यान/ गुप्त हो जाने के कारण ही यह स्थान गुप्तकाशी कहलाया l

एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शिव ने गुप्तकाशी में देवी पार्वती जी के समक्ष गोपनीय रूप से विवाह का प्रस्ताव रखा था इसलिए इस स्थान को गुप्तकाशी कहा गया किन्तु इस मान्यता में विद्वानों में मतभेद है कुश लोग शिव पार्वती के इस प्रसंग को गौरीकुंड से सम्बंधित मानते हैं l

इतिहासकारों की मान्यता के अनुसार सन 1669 में जब मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने वाराणसी स्थित काशी विस्वनाथ मंदिर को विध्वंस करना चाहा तो हिन्दुओं ने काशी विश्वनाथ के ज्योतिर्लिंग को सुरक्षित रखने के लिए उसे गुप्त रूप से वाराणसी (काशी) से यंहा स्थानांतरित कर दिया तथा यंही उनके गुप्त रूप से पूजा अर्चना की गई इसलिए इस स्थान का नाम गुप्तकाशी पड़ गया l

गुप्तकाशी में भगवान शिव का विशाल एवं भव्य मंदिर है जिसे विश्वनाथ मंदिर कहा जाता है, इस प्रमुख मंदिर के पास ही अर्धनारीश्वर मंदिर है जंहा शिव पार्वती दोनों के दर्शन एक ही विग्रह में होते हैं, शिवजी के द्वारा पार्वतीजी से विवाह के प्रस्ताव से सम्बंधित प्रसंग को इस मंदिर से यदि जोड़ा जाये तो इस तथ्य को कुछ प्रामाणिकता प्राप्त होती है l इन प्रमुख मंदिरों के अतिरिक्त गुप्तकाशी के चारों ओर अनेक शिवालय हैं जंहा शिवलिंग प्रतिष्ठापित हैं स्थानीय लोगों में इस सम्बन्ध में एक कहावत प्रचलित है कि " जितने पत्थर उतने शंकर " l

गुप्तकाशी के पास अन्य दर्शनीय स्थानों में ऊखीमठ (केदारनाथ का शीतकालीन पूजा स्थल), मणिकर्णिका कुण्ड जंहा भागीरथी (गंगा) एवं यमुना की धाराओं से शिव का अभिषेक दर्शनीय है, गाँधी सरोवर जंहा महात्मा गाँधी के पार्थिव शरीर कि भस्मी प्रवाहित की गई थी, एवं त्रियुगी नारायण मंदिर जंहा शिव - पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था आदि उल्लेखनीय हैं l त्रियुगीनारायण मंदिर परिसर में एक शिला का भी पूजन किया जाता है कहा जाता है कि इस शिला पर ही पार्वती जी के विवाह की कन्यादान रस्म संपन्न हुई थी, इसके अतिरिक्त यंहा एक स्थान पर अखंड अग्नि कुंद है जिसमे तीन युगों से निरंतर अग्नि प्रज्वलित रहती है, ऐसी मान्यता है कि इसी अग्नि के चारों ओर शिव पार्वती ने फेरे लेकर अपने विवाह की रस्म पूरी की थी l तीन युगों से अग्नि प्रज्वलित रहने के कारण यह स्थान त्रियुगी (त्रिजुगी) नारायण कहलाया जाता है l

17 जून को प्रात: परिवार एवं साथ गए सभी सम्बन्धियों ने मुझे जन्मदिन की बधाई,शुभकामना देते हुए मुंह मीठा कराया,यह दिन मेरे लिए बहुत शुभ था क्योंकि मुझे अपना जन्म दिन आज गौरीकुंड में पवित्र स्नान कर श्री केदारनाथ के दर्शन कर मनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था l 17 जून को हम लोग सुबह जल्दी तैयार होकर बिना स्नान किये गुप्तकाशी से गौरीकुंड जो श्री केदारनाथ का प्रवेश द्वार है के लिए निकल पड़े, गुप्तकाशी से गौरीकुंड की दूरी 33 किलोमीटर है ओर वंहा तक वाहनों के लिए सड़क मार्ग बना हुआ है l
ll जय श्री विश्वनाथ ll

क्रमश: अगले आलेख में गौरीकुंड दर्शन

Saturday, 21 July 2012

"गंगोत्री धाम"

हमारी चारधाम यात्रा का दूसरा चरण था "गंगोत्री धाम" - 14 जून 2012 को हम यमुनोत्री से बडकोट,उत्तरकाशी,गंगनानी होते हुए शाम को हरसिल पहुंचे और रात्रि विश्राम यंही किया , हरसिल उत्तराखंड खंड का रमणीक हिल स्टेशन एवं पर्यटन स्थल है जो स्वादिष्ट सेब के बगीचों के लिए भी विख्यात है l शीतकाल में यहाँ पहाड़ों पर हिमपात भी होता है, यंहा बहने वाली नदी का शोर पूरे क्षेत्र को गुंजायमान रखता है l यंहा सेना का बेस कैंप है और पूरा क्षेत्र सेना की सुरक्षा में है, यंहा का लक्ष्मी नारायण मंदिर,शिव मंदिर और दुर्गा मंदिर दर्शनीय है l मंदिर परिसर में ही सेना का हेलीपेड बना हुआ है पहाड़ी पर एक बौद्ध मंदिर भी है,हरसिल से कुछ ही दूरी पर प्राइवेट हेलीपेड भी बना हुआ है l हरसिल में परिवार की महिलाओं ने स्वयं ही खाना बना कर इस रात्रि को एक यादगार पिकनिक का रूप दिया l यमुनोत्री से गंगोत्री की दूरी 228 एवं हरसिल से 25 किलोमीटर है l हरसिल से प्रात: जल्दी उठ कर हम लोग गंगोत्री के लिए रवाना हुए, 25 किलोमीटर का पूरा मार्ग पहाड़ी घाटियों से होकर गुजरता है भागीरथी नदी नीचे की ओर बहती जा रही थी और हम ऊपर की ओर बढ़ते जा रहे थे, नदी का साथ और पहाड़ों की रमणीयता यात्रियों को तरोताजा रखती है l लगभग तीन घंटे सफ़र करके हम अपने गंतव्य स्थान "गंगोत्री" पंहुचे l 
गंगोत्री :

गंगोत्री जिसे गंगा का दिव्य धाम कहा जाता है, नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण एवं हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एक ऐसा अध्यात्मिक स्थान है जंहा मन को पूर्ण शांति मिलती है l भारत की पवित्र नदियों में गंगा का स्थान सर्वोपरि एवं महत्वपूर्ण है, यह वह नदी है जिसमें भारतीयों की आत्मा बसती है l युगों युगों से भारत की सभ्यता एवं संस्कृति की साक्षी गंगा के जल में दैवीय गुणों की मान्यता है, इसके स्मरण-दर्शन मात्र से ही व्यक्ति के समस्त पाप समाप्त हो जाते हैं l गंगा में स्नान करने एवं इसके जल का पान करने से अश्वमेघ यज्ञ करने का पुण्य प्राप्त होता है l गंगा के विषय में पौराणिक मान्यता है कि यह स्वर्ग से प्रकट होकर पृथ्वी पर अवतरित पतित पावनी नदी है l गंगा के सन्दर्भ में पुराणों एवं वेदों में अनेक आख्यान उपलब्ध हैं जिनका उल्लेख यंहा संभव नहीं है किन्तु इन आख्यानों से यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी पर अवतरित होने से पूर्व गंगा का अस्तित्व स्वर्ग में ही था l एक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु के पावन चरण धोने के पश्चात उस जल को ब्रम्हा जी ने अपने कमण्डलु में संग्रहित कर लिया और वही जल गंगा के रूप में प्रकट हुआ और ब्रम्हा जी के आदेश पर ही गंगा ने पृथ्वी पर पदार्पण किया l पुराणों एवं शास्त्रों की मान्यता के अनुसार कपिल मुनि के क्रोध से भस्म होकर मृत्यु को प्राप्त सूर्यवंशी राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों की मोक्ष हेतु कालांतर में सगर के पौत्र भागीरथ ने अपनी घोर तपस्या से गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित होने के लिए प्रसन्न किया था l गंगा ने पृथ्वी पर अवतरित होने के लिए तो भागीरथ को अपनी स्वीकृति प्रदान करदी किन्तु उसके प्रचंड वेग से पृथ्वी पर होने वाले विनाश को रोकने हेतु भागीरथ को चेतावनी देते हुए उचित उपाय करने का आदेश दिया l इसके लिए देवताओं के परामर्श से भागीरथ ने पुन: तपस्या कर भगवान् शिव को प्रसन्न किया और उनसे प्रार्थना की, जिसे स्वीकार कर भगवान शिव ने गंगा को पहले अपनी जटा में धारण किया फिर इसकी सात धाराओं में से केवल एक को पृथ्वी पर प्रवाहित किया था l हिमालय से उद्गम होने से गंगा को हिमालय की पुत्री और पार्वती जी की बहिन भी कहा जाता है, यह कथानक अति विस्तृत एवं गूढ़ है अत: प्रसंगवश यहाँ इतना ही पर्याप्त है, क्योंकि यंहा मेरा विषय वर्तमान "गंगोत्री धाम" की यात्रा मात्र है l

गंगा का मूल उद्गम स्थान वर्तमान गंगोत्री मंदिर से 18 किलोमीटर ऊपर समुद्र तल से 4200 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय पर्वतों के मध्य स्थित गौमुख ग्लेशियर है जंहा केवल पैदल मार्ग से ही जाया जा सकता है, इच्छा तो बहुत थी किन्तु समयाभाव के कारण हम वंहा नहीं जा सके l गंगोत्री धाम समुद्र तल से 3140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है इसके चारों और हिमालय के ऊंचे पर्वत हैं जिनके शिखर दूर से ऐसे लगते हैं मानो शिवलिंग के रूप में भगवन शिव विराजमान हैं , पहाड़ों पर बर्फ जून-जुलाई के महीनों में भी दिखाई देती है l गंगोत्री मंदिर से आधा किलोमीटर पहले ही विशाल भव्य स्वागत द्वार बना हुआ है जहाँ तक वाहन जा सकते हैं,इस दृष्टि से गंगोत्री धाम की यात्रा सुगम है क्योंकि यंहा यात्रियों को पैदल नहीं चलना पड़ता l गंगोत्री परिसर में पहुँचते ही साक्षात् गंगा के दर्शन कर मन प्रफुल्लित हो गया, ऊंचे हिमालय के पर्वतों के मध्य स्थित गोमुख से निकल कर आती भागीरथी हर किसी का मन मोह लेती है, किनारे से पर्वतों की चोटियाँ मन को आकर्षित करती हैं, हिमाच्छादित पर्वतों पर सूर्य की किरणों से उनका ऐसा श्रृंगार होता है कि उनकी स्वर्णिम आभा से दृष्टि हटती ही नहीं है, सूर्य की धूप से ये पर्वत ऐसे दमकते हैं मानो चांदी के पर्वत हों l कुछ देर तक हमने प्रकृति और गंगा के इस सौन्दर्य का आनंद लिया और फिर गंगा/भागीरथी के पावन जल में स्नान किया , जल इतना ठंडा था कि सर पर पानी डालते ही एक बार तो मस्तिस्क में शून्यता व्याप्त हो गई, लेकिन फिर स्नान करने में आनंद आया , किनारे पर गहराई अधिक नहीं होने से पानी में डुबकी लगाना संभव नहीं है और नदी के मध्य में पानी का वेग इतना प्रबल है कि वहां तक जाने की किसी कि हिम्मत नहीं होती, सभी अन्य यात्री भी लोटे में जल भर कर ही स्नान कर रहे थे, हमने भी ऐसे ही स्नान किया,यद्यपि प्रयास करके सभी ने अपने सर अवश्य गंगा के बहते जल में डुबोये l भागीरथी के दोनों और रमणीक तट एवं घाट बने हुए हैं जहाँ घंटों बैठ कर यात्री /पर्यटक अध्यात्म और प्रकृति के संगम का आनंद लेते हैं तथा मन में एक ऐसी शांति का अनुभव करते हैं जिसकी हम सदैव तलाश करते हैं l गंगा के इस तीव्र प्रवाह में मन कि अशांति और मानसिक चिंताएं स्वयं गंगा में ही प्रवाहित हो जाती हैं,और व्यक्ति स्वयं को भीतर से प्रफुल्लित महसूस करता है l स्नान के पश्चात हमने जयपुर क्षेत्र के स्थानीय पंडितजी से भागीरथी घाट पर पूजा कराई, कहा जाता है कि यहाँ गंगा के दर्शन-स्नान करने वाले यात्री सर्वथा पाप मुक्त हो जाते हैं तथा इस स्थान पर अपने दिवंगत पूर्वजों का स्मरण करने व गंगा मैया से प्रार्थना करने पर उनको मोक्ष गति प्राप्त होती है l पूजा-अर्चना के बाद हम गंगोत्री मंदिर में गंगा के दर्शन करने गए जो भागीरथी तट के समीप ही विशाल पहाड़ी पर बना हुआ है l

गंगोत्री मंदिर -

गंगोत्री मंदिर की स्थापना का संकल्प आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया था जिसका निर्माण गोरखा रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट जनरल अमर सिंह थापा ने अठारहवीं शताब्दी में करवाया था जिसके निश्चित काल की समुष्ट जानकारी नहीं है, कालांतर में 1935 में जयपुर के महाराजा माधोसिंह ने इसका पुनर्निर्माण,नवीनीकरण एवं सौन्दर्यीकरण करवाया यही कारण है कि इसके निर्माण में जयपुर की स्थापत्य कला के दर्शन होते हैं l सफ़ेद पत्थर से बना मंदिर भव्य एवं आकर्षक है इसकी छत सिल्वर रंग की बनी हुई हैं जो चाँदी की सी दिखाई देती हैं, मंदिर के चारों और छतरियां बनी हुई हैं तथा पंडाल में प्रदक्षिणा मार्ग बना हुआ है , मंदिर के शिखर पर स्वर्ण कलश सुशोभित हैं l मंदिर परिसर में गणेश जी,हनुमान जी एवं शिव जी के छोटे मंदिर भी हैं जो दर्शनीय हैं l मंदिर के सामने एक पहाड़ी पर शिव,गंगा,भागीरथ आदि की प्रस्तर प्रतिमाएं स्थापित हैं जिन्हें देख कर लगता है कि हम हिमालय में इन सभी के दर्शन कर रहे हैं l

गर्भ गृह -

मंदिर के गर्भ गृह में मध्य में माँ गंगा की धवल मूर्ती है जो पूर्ण श्रंगारित है, गंगा मैया के अतिरिक्त यमुना मैया,गणेश,भगवन शिव,माँ सरस्वती,दुर्गा, एवं भागीरथ ऋषि की मूर्तियाँ स्थापित हैं , यमुनोत्री मंदिर की भांति ही यहाँ भी एक चाँदी की चलायमान मूर्ती है जो गंगा मैया की है,शीतकाल में जब मंदिर के पट छै माह के लए बंद होते हैं तो यही मूर्ती गंगोत्री धाम से 25 किलोमीटर पूर्व हरसिल के निकट मुखबा गाँव में स्थित गंगा के शीतकालीन मंदिर में पारंपरिक तरीके से शोभा यात्रा के रूप में एक सुसज्जित पालकी में रख कर दीपावली के बाद यम द्वितीया (भाई दूज) को ले जाई जाती है इस अवधि में गंगा की पूजा अर्चना वंही होती है, पुन: अक्षय तृतीया को यह मूर्ती गंगोत्री धाम लाई जाती है l इस अवधि में गंगोत्री धाम हिम क्षेत्र में परिवर्तित हो जाता है, और दक्ष पर्वतारोहियों के अतिरिक्त यहाँ कोई नहीं आता l

भागीरथ शिला -

मंदिर परिसर में ही नदी के तट के निकट एक छोटे गोलाकार गुम्बद नुमा मंदिर में एक शिला के दर्शन है, कहा जाता है कि इसी शिला पर योग ध्यानस्थ होकर भागीरथ ऋषि ने गंगा को पृथ्वी पर अवतरित होने के लिए घोर तपस्या की थी, शिला के समीप ही काले पत्थर से निर्मित भागीरथ ऋषि की ध्यानस्थ मूर्ती स्थापित है, यात्री यहाँ पूजा कर अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए प्रार्थना करते है l इस स्थान को भागीरथ तपस्या स्थली कहा जाता है l

जलमग्न शिवलिंग -

मंदिर के समीप ही भागीरथी नदी में पत्थर का बना प्राकृतिक शिवलिंग है जो जलमग्न है,यह शीतकाल में जब नदी के पानी का स्तर कम होता है तभी दिखाई देता है l मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवन शिव ने भागीरथ ऋषि को गंगा कि धारा प्रदान की थी l

सूर्य कुंड/ गौरी कुंड एवं भागीरथ प्रपात -

भागीरथी नदी के दाहिनी ओर गंगोत्री मंदिर आदि हैं तो बाँई नदी का पाट पार कर सूर्य कुंड, गौरी कुंड एवं भागीरथी प्राप्त आदि स्थान हैं, जहाँ अनेक झरने हैं जिनका वेग अत्यंत तीव्र एवं जल बिलकुल स्वच्छ एवं धवल है, निरंतर पानी के तीव्र वेग से पहाड़ की चट्टानों ने गौमुख, सूर्य आदि के प्राकृतिक रूप धारण कर लिए हैं , यह सभी स्थान रमणीक एवं दर्शनीय हैं l

तपोवन / नंदनवन -

गंगोत्री धाम से गौमुख के मध्य भोजवासा में भोजपत्र के वृक्ष देखे जा सकते हैं l 18 किलोमीटर ऊपर स्थित गौमुख ग्लेशियर से एक मार्ग तपोवन एवं एक मार्ग नंदनवन जाता है, यह दोनों ही मार्ग अति दुर्गम हैं l तपोवन गौमुख से चार किलोमीटर की विकट चढ़ाई के बाद मैदानी भाग में है, 6543 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हिम शिवलिंग चोटी दर्शनीय है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी स्थान पर भगवन शिव ने गंगा को अपनी जटा धारण किया था l नंदनवन में रहने खाने की कोई व्यवस्था नहीं है, दक्ष एवं साहसी पर्वतारोही पर्यटक अपनी स्वयं की व्यवस्था के साथ पोटर गाइड कि सहायता से वंहा पहुँचते हैं, नंदनवन से आगे सुकिताल, कालिंदी खाल, होते हुए एक मार्ग दुर्गम पहाड़ों से होते हुए बद्रीनाथ के लिए जाता है l

गंगोत्री से जुडी परम्पराएँ - गंगोत्री से यात्री गंगाजल भर कर लाते है जिसे रामेश्वरम एवं केदारनाथ ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाया जाता है l ll जय गंगा मैया की ll

Wednesday, 18 July 2012

चारधाम यात्रा - "यमुनोत्री"






हमारी चारधाम यात्रा - "यमुनोत्री" हमारी चारधाम (उत्तराखंड) की यात्रा का प्रथम चरण था "यमुनोत्री" जिसे हिन्दुओं की पवित्र नदी यमुना का धाम कहा जाता है l १२ जून २०१२ को हम लोग प्रात: हरिद्वार से रवाना होकर देहरादून - मसूरी के रास्ते टिहरी बाँध होते हुए धरासू, ब्रम्ह्खाल , बडकोट, स्याना चट्टी से रात्री ८.३० बजे हनुमान चट्टी पहुंचे l मार्ग में हम सहस्र धारा, कैम्पटी फाल एवं टिहरी बाँध भी रुके, सहस्र धारा का सचित्र विवरण मैं अपने २९ जून के लेख में प्रकाशित कर चुका हूँ अन्य स्थानों का विवरण पृथक से यथा समय प्रकाशित करूँगा l ऋषिकेश से यमुनोत्री की दूरी २२२ किलो मीटर है, किन्तु पूरा मार्ग पहाड़ों के बीच घाटियों से होकर गुजरता है l 13 जून 2012 को प्रात: 6 बजे हम हनुमान चट्टी से यमुनोत्री के लिए निकले l यमुनोत्री यात्रा का विवरण लिखने से पूर्व श्री यमुनाजी के विषय में संक्षिप्त जानकारी देना उचित होगा : हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार "यमुना" भगवान सूर्य एवं देवी संज्ञा की पुत्री तथा मृत्यु के देवता यम की बहिन है इसीलिए यमुना को यमी भी कहा गया है , सूर्य पुत्र होने से शनि देव भी यमुना के भाई हैं l इस के अतिरिक्त यमुना भगवान् श्री कृष्ण की अति प्रिय अष्ट पटरानियों में से एक हैं जिन्हें कालिंदी भी कहा जाता है l पुष्टिमार्गीय बल्लभ सम्प्रदाय में श्री कृष्ण की अत्यंत प्रिय होने से यमुना जी को उनके साथ ही पूजित माना गया है और उनका स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है l बल्लभाचार्य श्री महाप्रभु जी ने तो श्री कृष्ण एवं यमुनाजी को एक साथ अपनी गोद में बिठा कर लाड लड़ाया है , श्री मद्भागवत सहित वेदों एवं पुराणों में श्री यमुना जी की महिमा का विस्तृत उल्लेख उपलब्ध है l यही कुछ मान्यताएं हैं जिनसे हिन्दू धर्म में यमुना को देवी एवं माता का सम्मान प्राप्त है l यम देवता की बहिन होने से यमुना को यमराज से कुछ ऐसे वरदान प्राप्त हैं जिनके अनुसार यमुना में स्नान करने वाले श्रद्धालुओं को यम की यातना एवं पापों से मुक्क्ति और मोक्ष प्राप्त होती है l यमुनोत्री से प्रवाहित होकर यमुना उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश,हरयाणा,हिमाचल प्रदेश,होते हुए दिल्ली के रास्ते इलाहाबाद पहुंचती है जंहा तीर्थराज प्रयाग में इसका गंगा एवं सरस्वती नदियों के साथ त्रिवेणी संगम होता है l यमुना का उद्गम : यमुना का उद्गम उत्तराखंड के हिमालय पर्वतों में से एक बन्दरपूँछ पर्वत की तलहटी में माना जाता है, कहा जाता है कि हनुमान जी ने तपस्या करते हुए हनुमान चट्टी में अपने शरीर का इतना विस्तार कर लिया था कि उनकी पूँछ पर्वत की चोटी तक पहुँच गई थी इसीलिए इस पर्वत को बन्दरपूँछ पर्वत कहा जाता है बन्दरपूँछ पर्वत तीन पर्वत चोटियों का एक समूह है जिसे कालिंद पर्वत भी कहा जाता है, कालिंद भगवान सूर्य देव का ही एक अन्य नाम है, इस पर्वत समूह में तीनों चोटियों के रंग पृथक हैं एक का सफ़ेद,दूसरी का स्वर्णिम तथा तीसरी चोटी का काला, तीनों ही पर्वत चोटियाँ बर्फ से आच्छादित हैं और यमुनोत्री से दिखाई देती हैं, इन से निकल कर आने वाला जल ही यमुना नदी का रूप लेता है, बन्दरपूँछ पर्वत की ऊँचाई समुद्र तल से ४४२१ मीटर मानी जाती है इस पर्वत पर स्थित चंपासर ग्लेशियर ही यमुना का मूल उद्गम स्थल है जो यमुनोत्री मंदिर से लगभग एक किलोमीटर ऊपर है किन्तु वंहा तक पंहुचने का मार्ग अत्यंत दुर्गम और खतरों से भरा है l मार्ग की सही पहचान न होने से बर्फीले पहाड़ों के बीच व्यक्ति इधर उधर भटक भी सकता है, अनुभवी एवं दक्ष पर्वतारोही ही वंहा जाने का साहस कर सकते हैं l इसीलिए श्रद्धालु यात्रियों की सुविधा के लिए यमुनोत्री मंदिर का निर्माण किया गया था ताकि वे यमुनोत्री मंदिर में ही यमुना जी की पूजा-अर्चना कर पुन्य लाभ प्राप्त कर सकें l कालिंद पर्वत के लगभग १२ किलोमीटर लम्बे परिधि क्षेत्र में ही सप्तऋषि कुंड-झील बताई जाती है जंहा दुर्लभ ब्रम्हकमल के पुष्प खिले रहते हैं l हनुमान चट्टी से जानकी चट्टी - हनुमान चट्टी को जितना प्रचारित किया गया है वैसा वंहा कुछ भी देखने को नहीं मिला यह एक बहुत छोटा सा गाँव है पहाड़ी पर एक छोटा सा हनुमान मंदिर है तथा यंहा हनुमान गंगा का यमुना के साथ संगम होता है, यात्रियों के रहने के लिए यदि कोई ठीक जगह है तो वह गढ़वाल विकास मंडल का एक ठीक ठाक होटल मात्र है बाकी स्थानीय लोगों ने अपने घरों में ही कमरों को होटल का रूप देकर अर्थोपार्जन का साधन बना रखा है गढ़वाल विकास मंडल के होटल में कमरे खाली नहीं होने से हमें भी मजबूरी में ऐसे ही कमरों में रात गुजारने को बाध्य होना पड़ा l हनुमान चट्टी की वजाय 6 किलोमीटर पहले स्यानाचट्टी रात्री विश्राम के लिए ज्यादा उपयुक्त है l होटल के नीचे ही एक ढाबे में खाना खाया, भूख और थकान में दाल, चपाती,चावल और सब्जी अच्छी लगी l थकान और नींद के मारे उन कमरों में भी कैसे रात गुज़र गई पता ही नहीं चला l सुबह 6 बजे हम लोग अपने वाहनों से हनुमान चट्टी से रवाना होकर 7 किलोमीटर दूर जानकी चट्टी पहुंचे यंहा से हमें यमुनोत्री के लिए 7 किलोमीटर की चढ़ाई पैदल ही चढ़नी थी l कुछ वर्ष पूर्व तक हनुमान चट्टी से ही यमुनोत्री का 14 किलोमीटर का मार्ग पैदल ही पार करना होता था किन्तु प्रशासन ने पहाड़ काट कर अब जानकीचट्टी तक का मार्ग वाहनों के लिए तैयार कर दिया जिससे बहुत सुविधा हो गई है l जानकीचट्टी से यात्री खच्चर, पालकी,कंडी या पिट्ठू किराये पर ले सकते हैं जिनका किराया मांग और आवश्यकता के अनुसार घटता बढ़ता रहता है l जानकी चट्टी से यमुनोत्री का 7 किलोमीटर का मार्ग सीधी और खडी चढ़ाई का है जो दुर्गम और थका देने वाला है किन्तु पूरा मार्ग प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा है एक ओर ऊंचे गगन चुम्बी पर्वत, दूसरी ओर हज़ारों फीट गहरी खाई है जिसमे पूरे वेग से निरंतर यमुना नदी प्रवाहित रहती है पहाड़ ओर खाई के बीच में पैदल जाने का मार्ग है जो सकडा और पथरीला है जिस पर पैदल यात्री भी चलते हैं और खच्चर,पालकी तथा पिट्ठू भी चलते हैं यमुनोत्री जाने और वंहा से आने का एक मात्र यही रास्ता है l खाई इतनी गहरी है की यदि कोई वस्तु गिर जाये तो उसे निकालना तो दूर देख पाना भी कठिन है l पहाड़ों पर कहीं बर्फ जमी है तो कंही बड़े बड़े वृक्षों की हरियाली आच्छादित है पूरे मार्ग में वातावरण अत्यंत रमणीक और मन को सकून देने वाला है l पहाड़ों से पानी के झरने इतनी उंचाई गिरते हैं कि उन्हें निहारते रहने को मन करता है, प्रकृती के इस सौन्दर्य का वर्णन शब्दों में किया जाना कठिन है इसे तो प्रत्यक्ष अनुभव ही किया जा सकता है l स्वांस,रक्तचाप एवं ह्रदय सम्बन्धी व्याधियों से पीड़ित लोगों को इस दुर्गम मार्ग पर पैदल जाने का खतरा नहीं उठाना चाहिए l मेरी धर्मपत्नी के अतिरिक्त हमारे साथ गई दो अन्य महिलाएं पालकी से गईं बाकी बच्चों सहित हम 17 लोग सभी बिना किसी परेशानी या कठिनाई के लगभग तीन घंटे में पैदल ही यमुनोत्री पंहुचे l मार्ग में सफाई की व्यवस्था तो है किन्तु खच्चरों के कारण गंदगी भी कम नहीं है, यात्रियों के लिए पीने के पानी एवं टॉयलेट की अस्थाई सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं l लगभग आधा किलोमीटर पूर्व से जब यमुनोत्री मंदिर का दृश्य दिखाई दिया तो मन प्रफुल्लित हो गया मंदिर के ऊपर बर्फसे आच्छादित गगनचुम्बी बन्दरपूँछ/ कालिंद पर्वत आकर्षक और सुहाने लग रहे थे l संलग्न फोटुओं से शायद आप भी इस दृश्य का आनंद ले सकेंगे l यमुनोत्री मंदिर : यमुनोत्री मंदिर के निर्माण के सम्बन्ध मतभेद हैं, यद्यपि कोई पुष्ट एवं प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है l प्राप्त जानकारी के अनुसार सर्व प्रथम 19 वी शताब्दी के प्रथम कालखंड जयपुर की महारानी गुलेरिया ने मंदिर का निर्माण करवाया था, टिहरी गढ़वाल के महाराजा प्रतापशाह द्वारा भी 1861 में मंदिर निर्माण का उल्लेख मिलता है जो अधिक पुष्ट माना जाता है l प्राकृतिक आपदाओं के कारण 1923 एवं 1982 में दो बार यह मंदिर क्षतिग्रस्त हुवा था जिसका जीर्णोद्धार करवाया गया था l वर्तमान मंदिर 3235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, मंदिर यद्यपि इतना विशाल तो नहीं कहा जा सकता किन्तु भव्य है l मंदिर के गर्भ गृह में देवी यमुना मैया एवं गंगा मैया की भव्य पाषाण प्रतिमाएं विराजित हैं जो सदैव पूर्ण श्रंगारित रहती हैं l एक प्रतिमा काले पत्थर की है जो यमुना जी की है और दूसरी प्रतिमा सफ़ेद पत्थर की है जो गंगा मैया की है चांदी धातु की एक अन्य प्रतिमा भी है जो यमुना मैया की ही है तथा शीतकाल में (नवम्बर से अप्रैल ) जब मंदिर के कपाट बंद रहते हैं तब छै माह तक यह चलायमान रजत मूर्ति जानकीचट्टी के समीप खरसाली गाँव में स्थित मंदिर में विराजित रहती है और वहीँ यमुना जी की पूजा-अर्चना की जाती है l दीपावली के बाद यमद्वितीया को मंदिर के कपाट छै माह के लिए बंद होते हैं उस दिन इस रजत मूर्ती को पारंपरिक रूप से सुसज्जित डोली में विराजमान कर खरसाली गाँव ले जाया जाता है l ऎसी मान्यता है कि खरसाली गाँव यमुना कि माता संज्ञा का निवास स्थल है और यमुना के भाई शनि देव स्वयं अपनी बहिन यमुना को लिवाने के लिए यमुनोत्री जाते हैं l शीतकाल में यमुनोत्री मंदिर परिसर (क्षेत्र) पूरी तरह से से निर्जन एवं बर्फ से ढका रहता है इस अवधि में वंहा कोई मनुष्य नहीं रहता, सब लोग नीचे जानकीचट्टी,खरसाली अथवा आस-पास के अपने गांवों में चले जाते हैं l ऐसे में भी वंहा एक संत का रहना आश्चर्य जनक है जिनका उल्लेख मैं आगे करूँगा l दिव्य शिला : यमुनोत्री के मुख्य मंदिर के समीप बल्कि उसकी बगल में ही सूर्य कुंड के पास एक छोटा मंदिर है जिसमें एक शिला (चट्टान) की पूजा की जाती है जिसे दिव्य शिला कहते हैं l इस शिला के नीचे जमीन से सदैव गर्म जल का स्रोत प्रवाहित होता रहता है कभी कभी तो इस जल की गति इतनी तीव्र हो जाती है कि गर्म जल का फव्वारा सा निकलने लगता है और कभी मन्दिम गति से जल रिसता रहता है l मान्यता है कि बन्दरपूँछ पर्वत अथवा कालिंद पर्वत पर चंपासर ग्लेशियर से यमुना का उद्गम होता है किन्तु वंहा तक लोगों का जा पाना संभव नहीं है इसलिए यमुना जी यहाँ इस दिव्य शिला में प्रकट हुई हैं और इसे भी वही मान्यता प्राप्त है जो यमुना के मूल उद्गम स्थान को प्राप्त है l यमुनोत्री मंदिर में प्रवेश से पूर्व इस दिव्य शिला की पूजा अर्चना करना आवश्यक है l यंहा पूजा करने के बाद ही मंदिर में प्रवेश किय जाता है l सच तो यह है कि पूजा तो यंही होती है मंदिर में तो केवल यमुना जी के दर्शन ही होते हैं l मैंने शिला का स्पर्श कर गर्म जल का प्रत्यक्ष अनुभव किया है l दिव्य शिला के ऊपर यमुना जी का आकर्षक चित्र एवं यमुना आरती आदि अंकित है l हमने भी सामूहिक रूप से पूजा कराई तथा पंडित जी से आशीर्वाद प्राप्त किया l पूजा कराने वाले पंडितों के क्षेत्र बंटे हुए हैं अपने अपने क्षेत्र के यात्रियों से वही पूजा करवाते हैं l सूर्य कुंड : यमुनोत्री मंदिर एवं दिव्यशिला मंदिर के मध्य में एक छोटा सा कुंड है जिसे सूर्य कुंड कहा जाता है, इस कुंड में दिन रात बारह मास हर मौसम में सदैव खोलता (उबलता) हुआ गर्म जल रहता है l इसका तापमान 190 डिग्री बताया जाता है और यह सही भी है l ऎसी परंपरा है कि श्रद्धालु यात्री इस कुंड के जल में चावल या आलू पकाते हैं और उनका भोग यमुना जी को लगा कर प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं l अब तक सुना ही था किन्तु वंहा जाकर ऐसा होते हुए प्रत्यक्ष देखा, यात्री नए एवं स्वच्छ पतले वस्त्र में चावल या आलू बांध कर इस कुंड में डुबाते हैं और कुछ ही क्षणों में वह पक कर तैयार हो जाते हैं l इसे प्रकृति का दैवीय चमत्कार ही कह जा सकता है, जंहा चारों और ओर बर्फ हो और तापमान शून्य से भी बहुत नीचे तक चला जाता हो वंहा खोलते हुए पानी का वह भी शास्वत, ईश्वर का चमत्कार ही हो सकता है l तप्त कुंड : मंदिर के समीप ही गर्म जल के कुंड बने हुए हैं जिनमे यात्री स्नान करते हैं , एक गौमुख से इन कुंडों में गर्म जल प्रवाहित होता रहता है l इस कुंड को तप्त कुंड कहा जाता है, पुरुषों एवं महिलाओं के लिए पृथक पृथक कुंड बने हैं जिनकी गहराई कमर तक है, कुंड के भीतर कहीं कहीं पत्थर के नीचे भी गर्म जल का अनुभव होता है पांव रखने पर लगता है कि पांव जल जायेगा, गौमुख से निकलने वाल पानी भी इतना गर्म होता है कि उसे हाथ में नहीं लिया जा सकता l इन तप्त कुंडों की विशेषता यह है कि इनमें स्नान करने से यात्रियों की सारी थकान बिलकुल समाप्त हो जाती है और वे पूर्ण रूप से ताजगी का अनुभव करते हैं, दुर्गम रास्ते की चढ़ाई से होने वाली थकान या शारीरिक पीड़ा स्नान करते ही गायब हो जाती है l यंहा स्नान के बाद ही पूजा-दर्शन का कार्य होता है l स्नान कर बाहर निकलने पर वातावरण की ठंडक भी महसूस होती है l राम मंदिर : संत राम भरोसे दास जी महाराज यमुनोत्री मंदिर से लगता हुआ एक अन्य मंदिर है जिसमें राम दरबार की भव्य प्रतिमाएं विराजित एवं पूजित हैं , यह स्थान कभी गुफा के रूप में था जिसे अब मंदिर का रूप दिया जा चुका है, जैसा कि मैंने पहले जिक्र किया था कि शीतकाल में जब यमुनोत्री क्षेत्र बिलकुल निर्जन हो जाता है और चारों तरफ बर्फ ही बर्फ होती है ऐसे में भी एक संत यंहा रहते हैं, यह मंदिर उन्ही संत श्री राम भरोसे दास जी महाराज कि तपस्या स्थली है, स्थानीय लोगों ने जानकारी दी कि यह संत हमेशा यहीं निवास करते हैं और तपस्या एवं भक्ति में लीन रहते हैं l संत महाराज न तो ज्यादा बोलते हैं न ही किसी से कोई अपेक्षा करते हैं l लगभग 85 वर्ष की आयु में भी मुख मंडल पर दिव्य तेज विद्यमान है कुछ समय का उनके साथ मेरा सानिध्य परम सुख दायक था, ऐसी तपस्वी एवं दर्शनीय विभूति को कोटि कोटि नमन l असित मुनि एवं यमुनोत्री धाम की ऐतिहासिकता : मान्यता है कि वर्तमान में जंहा यमुनोत्री का भव्य मंदिर स्थित है वह स्थान कभी असित मुनि की तपस्या स्थली था l असित मुनि इस बीहड़ निर्जन क्षेत्र में तपस्यालीन रहते थे गुफाओं में उनका निवास था जो कंही कंही अभी भी दृष्टव्य हैं l कहा जाता है कि वे प्रतिदिन नियमित रूप से यमुना एवं गंगा दोनों पवित्र नदियों में स्नान करते थे जो उनकी तपस्या एवं योग साधना से ही संभव था क्योंकि यमुना एवं गंगा विपरीत दिशाओं में और बहुत दूरी पर स्थित हैं l कालांतर में जब असित मुनि वृद्धावस्था एवं शारीरिक अक्षमता के कारण मुनि के लिए गंगा स्नान संभव नहीं रहा तो गंगा नदी की एक पवित्र धारा यमुना के समीप ही स्वयं प्रस्फुटित हो गई और मुनि का यमुना-गंगा स्नान का नियमित क्रम यथावत बना रहा l असित मुनि की उसी तपस्यास्थली पर वर्तमान यमुनोत्री मंदिर अवस्थित है l कदाचित इसी मान्यता एवं सन्दर्भ से यमुनोत्री मंदिर के गर्भगृह में यमुनाजी के साथ गंगाजी की भी मूर्ती प्रतिष्ठापित एवं पूजित है l इस सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि तपस्या एवं भक्ति के बल पर कुछ भी असंभव नहीं था, आज सुनने या पढने में हमें असित मुनि की यह बात कपोल कल्पित भले ही लगे किन्तु रामायण एवं भागवत सहित हमारे प्राचीन पुराणों में ऐसे अनेक सन्दर्भ विद्यमान हैं जिनकी सत्यता को चुनौती नहीं दी जा सकती l यमुनोत्री एवं इसके मार्ग में स्थानीय गढ़वालियों ने अनेक दुकानें लगा रखी हैं जो अस्थाई रूप से टेंट एवं टीन शेड से बनी हुई हैं इनमें साधारण खाने पीने की वस्तुएं ही मिल सकती हैं वह भी सामान्य स्तर की,अच्छे एवं स्तरीय रेस्टोरेंट का अभाव है l मौसम अप्रैल से सितम्बर - दिन में सुहाना रात में ठंडा रहता है, किन्तु जुलाई - अगस्त में भारी बरसात रहती है,ओक्टोबर - नवम्बर में भारी ठण्ड रहती है l ll जय यमुना मैया की ll