प्रदक्षिणा - परिक्रमा
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च ।
तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिण पदे पदे ।।
‘प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा अथवा परिक्रमा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है। सरल शब्दों में परिक्रमा ईश्वर की दाहिनी ओर से प्रारम्भ करनी चाहिए l किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में ‘कर्म लोचन’ नामक ग्रन्थ में लिखा गया है कि-
‘एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके।
हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा॥’
अर्थात् दुर्गा जी की एक, सूर्य की सात, गणेश जी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोम सूत्र का उल्लंघन नही करना चाहिए।क्योंकि प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग में शिव शक्ति होती है जिसे लांघने से शक्ति नष्ट हो सकती है l सोम सूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान शिव को चढ़ाया गया जल जिस ओर गिरता है, वहीं सोम सूत्र का स्थान होता है। सरल भाषा में हम यूँ समझें कि शिव लिंग की जलहरी से जंहा अभिषेक किया हुआ जल गिरता हो उस स्थान को लांघना नहीं चाहिए l अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढके हुए सोम सूत्र का उल्लंघन करने से दोष नही लगता है, लेकिन ‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
जिन देवताओं की प्रदक्षिणा की संख्या का विधान प्राप्त न हो, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। तीन परिक्रमा के विधान को सर्वमान्य रूप से स्वीकार किया गया है l निम्न मन्त्र से इसकी पुष्टि होती है -
‘यस्त्रि:प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्।
दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥’
जो लोग तीन प्रदक्षिणा साष्टांग प्रणाम करते हुए करते हैं, वे दश अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करते हैं। जो लोग सहस्रनाम का पाठ करते हुए प्रदक्षिणा करते हैं, वे सप्त द्वीपवती पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त करते हैं। बृहन्नारदीय में लिखा गया है कि जो भगवान विष्णु की तीन परिक्रमा करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से विमुक्त हो जाते हैं। अनेक श्रद्दालु अपनी कामना की पूर्ती हेतु देवालय में 108 प्रदक्षिणा / परिक्रमा का संकल्प भी लेते हैं इसका तात्पर्य है कि कामना के अनुसार भी प्रदक्षिणा की संख्या का विचार किया गया है। सोमवती अमावस्या को देवालय में देवता की 108 परिक्रमा को विशेष फलदायी बताया गया है l
परिक्रमा क्यूँ की जाती है और इसका क्या महत्व है के विषय में उल्लेख है कि भगवान् की पूजा -अर्चना, आरती के बाद भगवान् के चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है अत: जब हम ईश्वर के आस पास परिक्रमा करते है तो हमारी तरफ ईश्वर की सकारात्मक ऊर्जा आकृष्ट होती है और नकारात्मकता घटती है l . नकारात्मकता से ही पाप उत्पन्न होते है . - प्राण प्रतिष्ठित ईश्वरीय प्रतिमा की , पवित्र वृक्ष की , यज्ञ या हवन कुंड की परिक्रमा की जाती है जिससे उसकी सकारात्मक उर्जा हमारी तरफ आकृष्ट हो जाती है l गणेशजी ने भगवान् शिव और माता पार्वती की तीन परिक्रमा लगा कर सम्पूर्ण पृथ्वी की तीन परिक्रमा का फल प्राप्त कर लिया था l
यज्ञ स्थल की परिक्रमा का विशेष फल बताया गया है, यथा -
पदे पदेम्य परिपूजकेम्य सद्यो अश्वमेघा: फलम् ददाति।
ताम् सर्व पापम् क्षय हेतु भूतां प्रदक्षिणा ते परित: करोमि।
अर्थात पग पग चलकर प्रदक्षिणा करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सभी पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है। प्रदक्षिणा करने से तन मन धन पवित्र हो जाते हैं व मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। जहां पर यज्ञ होता है वहां देवताओं साथ गंगा यमुना व सरस्वती सहित समस्त तीर्थोंआदि वास होता है।
प्रदक्षिणा/परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से भगवान के समक्ष समर्पित कर देना भी है l
जंहा परिक्रमा मार्ग न हो वंहा भगवान के समक्ष खड़े होकर अपने पांवों को इस प्रकार चलाना चाहिए जैसे हम चल रहे हों, सूर्य दर्शन या देव विग्रह के समक्ष हम चारों ओर घूम कर भी परिक्रमा का ध्यान कर सकते हैं l प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करते हुए हमें भगवान का स्मरण करते हुए निम्न मन्त्र बोल कर परिक्रमा का ध्यान करना चाहिए l .--
यानी कानी च पापानि , जन्मान्तर कृतानि च |
तानी तानी विनश्यन्ति , प्रदक्षिण पदे पदे ||
परिक्रमा प्रारंभ करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। परिक्रमा वहीं पूर्ण करें जहां से प्रारम्भ की गई थी। परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से अभीष्ट एवं पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है
परिक्रमा पूर्ण करने के पश्चात भगवान को दंडवत प्रणाम करना चाहिए l
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च ।
तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिण पदे पदे ।।
‘प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा अथवा परिक्रमा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है। सरल शब्दों में परिक्रमा ईश्वर की दाहिनी ओर से प्रारम्भ करनी चाहिए l किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में ‘कर्म लोचन’ नामक ग्रन्थ में लिखा गया है कि-
‘एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके।
हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा॥’
अर्थात् दुर्गा जी की एक, सूर्य की सात, गणेश जी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोम सूत्र का उल्लंघन नही करना चाहिए।क्योंकि प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग में शिव शक्ति होती है जिसे लांघने से शक्ति नष्ट हो सकती है l सोम सूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान शिव को चढ़ाया गया जल जिस ओर गिरता है, वहीं सोम सूत्र का स्थान होता है। सरल भाषा में हम यूँ समझें कि शिव लिंग की जलहरी से जंहा अभिषेक किया हुआ जल गिरता हो उस स्थान को लांघना नहीं चाहिए l अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढके हुए सोम सूत्र का उल्लंघन करने से दोष नही लगता है, लेकिन ‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
जिन देवताओं की प्रदक्षिणा की संख्या का विधान प्राप्त न हो, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। तीन परिक्रमा के विधान को सर्वमान्य रूप से स्वीकार किया गया है l निम्न मन्त्र से इसकी पुष्टि होती है -
‘यस्त्रि:प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्।
दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥’
जो लोग तीन प्रदक्षिणा साष्टांग प्रणाम करते हुए करते हैं, वे दश अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करते हैं। जो लोग सहस्रनाम का पाठ करते हुए प्रदक्षिणा करते हैं, वे सप्त द्वीपवती पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त करते हैं। बृहन्नारदीय में लिखा गया है कि जो भगवान विष्णु की तीन परिक्रमा करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से विमुक्त हो जाते हैं। अनेक श्रद्दालु अपनी कामना की पूर्ती हेतु देवालय में 108 प्रदक्षिणा / परिक्रमा का संकल्प भी लेते हैं इसका तात्पर्य है कि कामना के अनुसार भी प्रदक्षिणा की संख्या का विचार किया गया है। सोमवती अमावस्या को देवालय में देवता की 108 परिक्रमा को विशेष फलदायी बताया गया है l
परिक्रमा क्यूँ की जाती है और इसका क्या महत्व है के विषय में उल्लेख है कि भगवान् की पूजा -अर्चना, आरती के बाद भगवान् के चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है अत: जब हम ईश्वर के आस पास परिक्रमा करते है तो हमारी तरफ ईश्वर की सकारात्मक ऊर्जा आकृष्ट होती है और नकारात्मकता घटती है l . नकारात्मकता से ही पाप उत्पन्न होते है . - प्राण प्रतिष्ठित ईश्वरीय प्रतिमा की , पवित्र वृक्ष की , यज्ञ या हवन कुंड की परिक्रमा की जाती है जिससे उसकी सकारात्मक उर्जा हमारी तरफ आकृष्ट हो जाती है l गणेशजी ने भगवान् शिव और माता पार्वती की तीन परिक्रमा लगा कर सम्पूर्ण पृथ्वी की तीन परिक्रमा का फल प्राप्त कर लिया था l
यज्ञ स्थल की परिक्रमा का विशेष फल बताया गया है, यथा -
पदे पदेम्य परिपूजकेम्य सद्यो अश्वमेघा: फलम् ददाति।
ताम् सर्व पापम् क्षय हेतु भूतां प्रदक्षिणा ते परित: करोमि।
अर्थात पग पग चलकर प्रदक्षिणा करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सभी पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है। प्रदक्षिणा करने से तन मन धन पवित्र हो जाते हैं व मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। जहां पर यज्ञ होता है वहां देवताओं साथ गंगा यमुना व सरस्वती सहित समस्त तीर्थोंआदि वास होता है।
प्रदक्षिणा/परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से भगवान के समक्ष समर्पित कर देना भी है l
जंहा परिक्रमा मार्ग न हो वंहा भगवान के समक्ष खड़े होकर अपने पांवों को इस प्रकार चलाना चाहिए जैसे हम चल रहे हों, सूर्य दर्शन या देव विग्रह के समक्ष हम चारों ओर घूम कर भी परिक्रमा का ध्यान कर सकते हैं l प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करते हुए हमें भगवान का स्मरण करते हुए निम्न मन्त्र बोल कर परिक्रमा का ध्यान करना चाहिए l .--
यानी कानी च पापानि , जन्मान्तर कृतानि च |
तानी तानी विनश्यन्ति , प्रदक्षिण पदे पदे ||
परिक्रमा प्रारंभ करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। परिक्रमा वहीं पूर्ण करें जहां से प्रारम्भ की गई थी। परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से अभीष्ट एवं पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है
परिक्रमा पूर्ण करने के पश्चात भगवान को दंडवत प्रणाम करना चाहिए l
बहुत सुन्दर जानकारी आपने दी धन्यवाद मे यह श्लोक ढूंढ़ रहा था की कोनसे ग्रन्थ मे यह लिखा है इस श्लोक की अध्याय और क्रम यदि ज्ञात हो तो बता दीजियेगा
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