हमारी चारधाम यात्रा - बद्रीनाथ ( भाग- दो )
बद्रीनाथ धाम का महत्व -
भारत की चारों दिशाओं में स्थित चार धामों ( रामेश्वरम, द्वारिका,जगन्नाथ,एवं बद्रीनाथ) में सर्वाधिक महत्व श्री बद्रीनाथ धाम का बताया गया है,स्वयं भगवान ने कहा है की कलियुग में मैं अपने भक्तों को बद्रीनाथ (बद्रिकाश्रम) में मिलूंगा l पुराणों में बद्रीनाथ धाम को पृथ्वी पर वैकुण्ठ की उपमा दी गई है,क्योंकि यंहा साक्षात् विष्णु विराजमान हैं l हिन्दू धर्मावलम्बियों के अतिरिक्त बौद्ध एवं जैन धर्म के अनुयायियों की भी इस धाम से गहरी आस्था जुड़ी हुई है l इस धाम को एक कवि ने अपनी पंक्तियों में इस प्रकार निरूपित किया है :-
पवन मंद सुगंध शीतल हेम मंदिर शोभितम l
निकट गंगा बहत निर्मल श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम ll
विभिन्न काल खण्डों में इसे भिन्न भिन्न नामों से जाना गया है, स्कन्दपुराण के अनुसार -
कृते मुक्तिप्रदाप्रोक्ता, त्रेतायां योग सिद्धिदा l
विशाला द्वापरे प्रोक्ता,कलौ बद्रिकाश्रम ll
स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को मुक्तिप्रदा के नाम से उल्लेखित किया गया है,त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को योग सिद्धा, द्वापर में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे विशाला तीर्थ कहा गया है , कलियुग में इस धाम को बद्रिकाश्रम अथवा बद्रीनाथ के नाम से जाना जाता है l स्कन्दपुराण,मार्कंडेयपुराण,एवं श्री मद्भागवत तथा महाभारत में इसके महत्व का विस्तृत उल्लेख किया गया है l बद्रीनाथ धाम में पूजित बद्री विशाल की शालग्राम स्वरूप पद्मासनस्थ मूर्ती के लिए भगवान श्री नारायण ने कहा है कि कलियुग में मेरी इस मूर्ती के दर्शन मात्र से ही मेरे प्रत्यक्ष दर्शन का पुण्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है l
महाभारत के अनुसार अन्य तीर्थों में स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से मनुष्य की मुक्ति होती है किन्तु बद्री विशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है, यथा -
अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात l
बदरीदर्शनादेव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता l l
वराहपुराण के अनुसार मनुष्य कंही से भी बदरी आश्रम का स्मरण करता रहे तो वह पुनरावृत्तिवर्जित वैष्णव धाम को प्राप्त होता है, यथा -
श्री बदर्याश्रमं पुण्यं यत्र यत्र स्थित: स्मरेत l
स याति वैष्णवम स्थानं पुनरावृत्ति वर्जित: l l
पौराणिक मान्यताएं -
बद्रीनाथ धाम के सम्बन्ध में पुराणों में कुछ मान्यताएं उपलब्ध हैं, एक मान्यता के अनुसार किसी ऋषि के श्राप से मुक्ति हेतु भगवान् विष्णु ने तपस्या करने हेतु बदरी क्षेत्र (बदरी वन) को उपयुक्त मान कर वह यंहा आये और पद्मासन अवस्था में तपस्या में लीन हो गये,लम्बी अवधि तक तपस्या के कारण लक्ष्मी जी वंहा आई और उन्होंने भगवान् को तपस्या लीन देखकर हिमालय में गहरे हिमपात एवं धूप से रक्षार्थ छाया हेतु स्वयं विशाल बदरी वृक्ष (बेर का वृक्ष) के रूप में भगवान पर छा गई, इसलिए इस क्षेत्र का नाम पड़ा बदरी विशाल और भगवान नारायण के साथ जुड़ने से यह बदरीनाथ अथवा बद्री नारायण धाम के नाम से विख्यात हुआ l
एक अन्य मान्यता के अनुसार विष्णु ने "नारायण" का अवतार लेकर एवं कृष्णावतार में उनके सखा "अर्जुन" ने नर के रूप में यंहा लम्बी तपस्या की थी,पुराणों में भगवान के इस नर नारायण अवतार का विस्तृत उल्लेख है, स्वयं नारायण के द्वारा इस बदरी क्षेत्र में तपस्या किये जाने से इस स्थान का नाम बदरी नारायण पड़ा l आज भी बद्रीनाथ मंदिर के समीप नर-नारायण पर्वतों के रूप में स्वयं श्री नारायण (विष्णु) एवं अर्जुन यंहा विद्यमान हैं l तथा मंदिर के गर्भ गृह में भी नर-नारायण की मूर्तियाँ विराजमान हैं l
ऎसी ही एक अन्य मान्यता के अनुसार यह क्षेत्र भगवान शिव एवं पार्वती का था जो यंहा तपस्या कर रहे थे, विष्णु एक छोटे बालक के रूप में यंहा आये और रुदन करने लगे जिससे शिव-पार्वती कीतपस्या में विघ्न उत्पन्न हुआ और उन्होंने बालक से उसके रुदन का कारण पूछा, बालक ने बताया कि वह यंहा तपस्या करना चाहता है, शिव पार्वती ने बालक के रूप में विष्णु को पहचान लिया और वे स्वयं इस क्षेत्र को छोड़ कर केदारनाथ चले गए तत्पश्चात भगवान श्री नारायण ने यंहा तपस्या की और यह क्षेत्र बदरी नारायण कहलाया l
चरण पादुकाएं -
मान्यता है कि बद्रीनाथ मंदिर के गर्भ गृह में पूजित एवं दर्शनीय चरण पादुकाएं भगवान श्री कृष्ण की हैं जो उन्होंने इस पृथ्वीलोक (मृत्युलोक) से वापस अपने वैकुण्ठधाम को प्रयाण से पूर्व श्री उद्धव जी को दी थी और कहा था कि इन्हें आप बद्रिकाश्रम में स्थापित कर देना ल
मंदिर बंद होने की परम्पराएं -
बद्रीनाथ मंदिर के कपाट 6 माह खुले रहते हैं और 6 माह बंद रहते हैं, कपाट बंद होने की तिथि का निर्धारण विजयादशमी के पर्व पर बद्रीनाथ में होता है इस दिन मंदिर परिसर में मंदिर के रावल (मुख्य पुजारी),धर्माधिकारी,और वेड पाठियों की उपस्थिति में वैदिक पंचांग व ग्रह नक्षत्र देख कर मंदिर के कपाट बंद करने की तिथि एवं समय का निर्णय लिया जाता है l इस अवसर पर भगवान नारायण की कुण्डली भी देखी जाती है, मार्गशीर्ष माह के प्रथम सप्ताह (दीपावली के बाद) में ही कपाट बंद होने की परंपरा है l
उल्लेखनीय है की कपाट बंद होने की तिथि से पांच दिन पूर्व ही मंदिर के कपाट बंद होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है l सर्व प्रथम मंदिर परिसर में स्थित गणेश मंदिर के कपाट बंद होते हैं इसके बाद आदि केदारेश्वर के कपाट बंद किये जाते हैं अगले चरण में तीसरे दिन वेड मन्त्रों की पुस्तिका बंद की जाती है, चौथे दिन माँ लक्ष्मी की मूर्ती को परिक्रमा पथ से गर्भ गृह में श्री बद्री विशाल के साथ विराजमान किया जाता है तथा गर्भ गृह में विराजमान अन्य देवताओं की मूर्तियाँ बाहर लायी जाती हैं,पांचवे दिन विधि विधान से वैदिक मन्त्रों एवं रिचाओं के साथ बद्रीनाथ मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद कर दिए जाते हैं l इस 6 माह की अवधि में गर्भ गृह में केवल बद्री विशाल और माँ लक्ष्मी की मूर्तियाँ रहती हैं l कपाट बंद होने से पूर्व बद्रीनाथ धाम के निकट माणा गाँव की कुंवारी कन्याओं द्वारा एक ही दिन में ऊन से निर्मित घृत कम्बल से भगवान बद्री नाथ एवं माँ लक्ष्मी को ढका जाता है तथा अखंड दीप स्थापित किया जाता है l कपाट बंद होने के दूसरे दिन गर्भ गृह से बाहर निकाली गई श्री उद्धवजी एवं कुबेरजी की चल- उत्सव मूर्तियों को आद्य गुरु शंकराचार्य की गद्दी के साथ शीतकालीन पूजा स्थल पाण्डुकेश्वर लाया जाता है यंहा स्थित योगध्यान बद्री मंदिर के गर्भ गृह में श्री उद्धव जी एवं कुबेर जी की मूर्तियाँ विराजमान की जाती हैं l शीतकाल में बद्री विशाल के कपाट बंद रहने तक बद्री नारायण कि नियमित पूजा यंही पर की जाती है जब कि शंकराचार्य गद्दी को जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर ले जाया जाता है l
मंदिर खुलने कि परंपरा -
मध्य हिमालय स्थित बद्रीनाथ मंदिर के कपाट खुलने कि तिथि का निर्धारण बसंत पंचमी के दिन टिहरी के राज दरबार (नरेन्द्र नगर) में राजा कि उपस्थिति में मंदिर समिति के धर्माधिकारी,वेड पाठी एवं raaj दरबार के राज पुरोहित वैदिक पंचांग देख कर करते हैं l प्राय: अक्षय तृतीया को कपाट खुलने की परंपरा है l इस दिन श्री उद्धवजी एवं कुबेर जी कि चल-उत्सव मूर्तियों को वापस बद्रीनाथ मंदिर के गर्भ गृह में विराजमान किया जाता है, जोशी मठ से शंकराचार्य गद्दी भी वापस लाई जाती है तथा परिक्रमा पथ में निर्धारित स्थान पर रखी जाती है l वैदिक मंत्रोच्चार के साथ विधि विधान से कपाट खुलने पर माणा गाँव की कुंवारी कन्याओं द्वारा ही भगवान बद्रीनाथ को कपाट बंद करते समय ओढाया गया घृत कम्बल हटाया जाता है तथा फाफड (स्थानीय फल) के हलुवे का भोग लगाया जाता है इसके बाद माँ लक्ष्मी जी की मूर्ती को वापस परिक्रमा पथ में स्थित लक्ष्मी मंदिर में विराजित किया जाता है तथा अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ वापस गर्भ गृह में स्थापित की जाती हैं l
कपाट खुलने के दिन बद्रीनाथ मंदिर के गर्भ गृह में प्रज्वलित अखंड ज्योति के दर्शन का विशेष महात्म्य है l ऐसी मान्यता है कि कपाट बंद होने से लेकर कपाट खुलने तक ( 6 माह ) यह ज्योति निरंतर प्रज्वलित रहती है, जबकि इस अवधि में यह क्षेत्र पूर्ण रूप से बर्फ से ढका रहता है, तथा आक्सीजन की भी कमी रहती है, ऐसी स्थिति में इतने लम्बे समय तक ज्योति का निरंतर प्रज्वलित रहना भगवान नारायण का चमत्कार ही माना जाता है l इस अखंड ज्योति के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु यंहा आते हैं ,ज्योति के दर्शन से अभीष्ट की प्राप्ति और पुण्य मिलता है l इसके अतिरिक्त कपाट बंद होते समय भगवान को जिस घृत कम्बल से ढका जाता है उसे इस अवसर पर श्रद्धालुओं को प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है इस प्रसाद का भी अपना अलग ही महत्व है l
बद्रीनाथ धाम में अन्य तीर्थ एवं दर्शनीय स्थान -
ब्रम्ह कपाल (कपाल मोचन तीर्थ) -
बद्रीनाथ मंदिर से दो सौ मीटर की दूरी पर अलकनंदा नदी से सता ब्रम्ह्कपाल तीर्थ है, यंहा एक विशाल शिला है जिस पर पिंड दान व अपने पितरों का श्राद्ध कर्म किया जाता है,यंहा किये गए पिंड दान -श्राद्ध कर्म का विशेष महत्व है l कहा जाता है कि यदि किसी ने अपने पितरों का कंही अन्यत्र श्राद्ध या पिंड दान नहीं किया हो तो वह ब्रम्ह्कपाल में कर सकता, यंहा का ऐसा विधान है कि ब्रम्ह्कपाल में पिंड दान करने के पश्चात फिर कंही और पिंड दान नहीं किया जा सकता l कहा जाता है कि यंहा चावल के पके एक दाने का एक भाग भी पिंड रूप में दिया जाये तो श्राद्धकर्ता की पिछली सात पीढ़ियों का उद्धार होता है l मान्यता के अनुसार जब शिव ने श्रृष्टिकर्ता भगवान ब्रम्हा का पांचवा मस्तक काटा तो वह ब्रम्ह्कपाल में निपतित हुआ l शिव जी पर ब्रम्ह हत्या को दोष लगा इससे मुक्ति के लिए शिव भगवान विष्णु के पास गए l न्हाग्वान विष्णु ने शिव को ब्रम्ह्कपाल में जाकर श्राद्ध करने को कहा, ऐसा करने पर शिव ब्रम्ह हत्या के दोष से मुक्त हुए l
पंच शिला -
बद्रीनाथ धाम में पौराणिक महत्व की पंच शिलाएं हैं ये समस्त शिलाएं तप्त कुण्ड के समीप ही हैं -
1. गरुड़ शिला - भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए इस शिला पर तपस्या की थी l
2. नारद शिला - इस शिला पर बैठकर देवर्षि नारद ने भगवान के दर्शन पाने के लिए कठिन तप किया था, इस शिला का हिस्सा अलकनंदा नदी में है तथा इसमें एक नारद कुण्ड भी है इसी कुण्ड से भगवान बदरीनाथ की मूर्ती को शंकराचार्य ने निकाला था l नारदकुंड में जाना वर्जित है l
3. नृसिंह शिला - नृसिंह आकृति की इस शिला के लिए माना जाता है क़ि भगवान नृसिंह अपना क्रोध शांत करने के लिए भगवान नारायण के पास इसी हिम क्षेत्र में आये थे,ऋषि मुनियों के आग्रह पर नृसिंह यंहा शिला रूपम रहने लगे l
इनके अतरिक्त मार्कंडेय शिला एवं बाराही शिलाएं हैं, इन सभी शिलाओं के दर्शन से पुण्य लाभ होता है l
तप्त कुण्ड - बद्रीनाथ मंदिर के नीचे ही तप्त कुण्ड है जिसमें सदैव गर्म जल का स्रोत प्रवाहित है इस कुण्ड में स्नान करके ही श्रद्धालु बद्रीनाथ के दर्शन करने जाते हैं l कहा जाता है क़ि इस कुण्ड में जो जल आता है वह भगवान नारायण के चरणों से आता है इसलिए इसमें स्नान का विशेष महत्व है l
उत्तराखंड में पंच केदारों एवं पंच प्रयागों की तरह ही पंच बदरी भी हैं जो श्री बदरी विशाल के अतिरिक्त क्रमश: योग बदरी , वृद्ध बदरी ,ध्यान बदरी , एवं भविष्य बदरी के नाम से विख्यात हैं l इन सभी के दर्शनों का महत्व बताया गया है l बदरीनाथ से वापस लौटते हुए इनमें से हमने योग बदरी एवं वृद्ध बदरी के दर्शन किये l कहा जाता है कि भविष्य में जब बदरीनाथ धाम का मार्ग आवागमन के लिए सदैव के लिए बंद हो जायेगा तब बदरीनाथ के दर्शन भविष्य बदरी में ही होंगे l प्रसंग विस्तार के भय से इन सबका पृथक उल्लेख नहीं कर पा रहा हूँ , पृथक से फिर कभी इन स्थानों का वर्णन करने का प्रयास करूंगा l
"जय श्री बदरीनाथ"
क्रमश: अगले आलेख में भारत का अंतिम गाँव - माणा गाँव
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