ज्योतिर्लिंगमिदं
प्रोक्तं त्र्यम्बकं नाम विश्रुतम्।
स्थितं तटे हि गौतम्या महापातकनाशनम्।।
य: पश्येद्भक्तितो ज्योतिर्लिंगं त्र्यम्बकनामकम्।
पूजयेत्प्रणमेत्सतुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते।।
ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकं हि पूजितं गौतमेन ह।
सर्वकामप्रदं चात्र परत्र परमुक्तिदम्।।
स्थितं तटे हि गौतम्या महापातकनाशनम्।।
य: पश्येद्भक्तितो ज्योतिर्लिंगं त्र्यम्बकनामकम्।
पूजयेत्प्रणमेत्सतुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते।।
ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकं हि पूजितं गौतमेन ह।
सर्वकामप्रदं चात्र परत्र परमुक्तिदम्।।
द्वादश ज्योतिर्लिंग
में श्री त्र्यम्बकेश्वर का विशेष महत्व माना जाता है, बुजुर्ग लोगों की यह बात तब
समझ में आई जब इस बार नासिक महाकुम्भ के अवसर पर स्वयं त्र्यम्बकेश्वर जाकर 23
सितम्बर 2015 को दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ l मृत्युभय से मुक्ति प्रदान
करने वाले महामृत्युंजय मंत्र के आदि शब्द --ऊँ त्र्यंबकं यजामहे ...... निश्चित रूप से भगवान त्रयंबकेश्वर के महत्त्व को रेखांकित करते हैं। भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में त्रयंबकेश्वर की विशिष्ट महिमा है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रयंबकेश्वर जैसा पवित्र स्थल, गोदावरी जैसी पवित्र नदी और ब्रह्मगिरि जैसा पवित्र पर्वत दूसरा नहीं है।
गौतम ऋषि के तप से पावन और आंजनेय
हनुमान के जन्म स्थल से ( हनुमान जी के जन्म स्थान के सम्बन्ध में अनेक मत हैं,
त्र्यम्बकेश्वर के समीप अंजनेरी पर्वत को भी हनुमान जी के जन्म स्थान की लोक
मान्यता प्राप्त है) दिव्य यह भूमि अद्भुत
प्रभाव से युक्त है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में त्रयंबकेश्वर का स्थान महत्त्वपूर्ण है।
मृत्युंजय की भावना को बल प्रदान करने
वाले इस ज्योतिर्लिंग की यात्रा हर आस्थावान व्यक्ति करना चाहता है।
सौराष्ट्रे
सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां
वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।:सेतुबन्धे तु
रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु
विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।:हिमालये तु
केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि
ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥
उपरोक्त श्लोक के अनुसार त्र्यम्बकेश्वर की गणना आठवें
स्थान पर प्रतिपादित होती है किन्तु त्र्यम्बकेश्वर में त्रिदेव ( ब्रम्हा, विष्णु
व महेश ) के प्रतीकात्मक लिंग दर्शन से त्र्यम्बकेश्वर का महत्व अधिक माना गया है
l
त्रयंबकेश्वर मंदिर के परिसर में कुछ विशेष ही अनुभूति होती है। परिसर में प्रवेश करते ही एक अलग प्रभाव का एहसास होता है। शिवमय वातावरण और
मंत्रमय शांति कुछ ऐसा जरूर दे जाती है
जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है, शब्द देना कठिन है ।
वस्तुत: त्रयंबकेश्वर के अतिरिक्त शेष सभी ज्योतिर्लिंगों के अधिष्ठाता भगवान शिव स्वयम अकेले हैं जबकि त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु एवं संहर्ता रुद्र तीनों ही
हैं और इसीलिए अन्य ज्योतिर्लिंगों के मध्य त्र्यम्बकेश्वर का विशेष महत्व
प्रतिपादित है l त्रिदेवों के एक ज्योतिर्लिंग में समाहित होने के पीछे एक कथा
बताई जाती है। लिंगोद्भव कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा और विष्णु भगवान शिव की उत्पत्ति का रहस्य जानेने का प्रयास करने लगे। भगवान शिव ने स्वयं को ज्योतिपुंज के रूप में प्रकट किया किंतु अदृश्य ही रहे। ब्रह्मा जी ने असत्य बोला कि उन्होंने ज्योतिपुंज
को देखा है। भगवान शिव इस झूठ पर क्रुद्ध हो गए तथा ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि पृथ्वीलोक पर उनकी
पूजा नहीं होगी। प्रतिकार में ब्रह्मा जी ने भगवान शिव को श्राप दिया कि वे भूतल में समा जाएंगे। संभवतः उसी का
परिणाम है कि त्र्यंबक स्थित ज्योतिर्लिंग धरातल से नीचे है। वर्तमान में
लिंगदर्शन के लिए एक विशाल दर्पण लगाया गया है जिसमें ज्योतिर्लिंग का प्रतिबिंब दिखाई
देता है। भक्त मूल ज्योतिर्लिंग के दर्शन से प्रायः वंचित ही रह जाते हैं। वस्तुतः शिवलिंग धरातल से नीचे दबा हुआ है और
गहराई में होने के कारण द्वार से दर्शन नहीं हो पाते। दर्पण की व्यवस्था से लिंग प्रतिबिंब रूप में आसानी से
दिख जाता है। अर्घा के भीतर अंगुष्ठाकार तीन लिंग हैं जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के पतीक हैं l प्रतिदिन तीन पूजा तथा
आरतियां होती हैं जबकि प्रदोष के दिन एक अतिरिक्त
आरती की जाती है। पूजा के उपरांत अर्धा के ऊपर चाँदी का पंचमुख चढ़ा दिया जाता है,
श्रद्धालुओं को उसी के दर्शन होते हैं। एक दूसरा पंचमुख
सोने का है, जिसे हर सोमवार को पालकी
में विराजमान करके कुशावर्ता ले जाया जाता है। गंगा का जल सदैव ही शिवलिंग पर प्रवाहित होता रहता है।
मंदिर का सर्वप्रथम
निर्माण कब हुआ, यह अज्ञात है। वर्तमान
मंदिर एक पुनर्निमाण है जिसे श्रीमंत बालाजी बाजीराव पेशवा जिन्हें नाना साहब पेशवा भी कहा जाता है, ने सन 1755 के मार्गषीश कृष्णपक्ष में प्रारंभ करवाया। इकतीस वर्षों के लगातार प्रयास से इसका निर्माण 1786 में संपन्न हुआ। कहा जाता है कि उस समय इसका निर्माण व्यय लगभग 16 लाख रुपये आया था। पूरा
मंदिर काले पत्थरों से नागरा शैली में बना है। संरचना के आधार पर यह वर्गाकार है तथा बाहर से तारांकित है। मंदिर
का कलश केवल ऊंचा ही नहीं अपितु
स्वर्ण से सुशोभित है। अंतराल एवं गर्भगृह के मध्य मंडप है जिसमें प्रवेश
के लिए चार द्वार बने हैं। द्वार पर सुंदर नक्काशी
है तथा पूरा मंदिर अच्छे वास्तु का नमूना है। बाह्य दीवारें
देवताओं, पशु -पक्षियों तथा यक्षों की आकृति से सजाई गई हैं। मुख्य मंदिर में पूर्व की ओर
सबसे बड़ा चौकोर मंडप है। इसके चारों ओर दरवाजे हैं। पश्चिमी द्वार को छोड़कर बाकी
तीनों से इसमें प्रवेश कर सकते हैं। पश्चिमी द्वार अंतराला में खुलता है। सभी
द्वारों पर द्वार-मंडप हैं। अंतराला गर्भगृह और मंडप के बीच है। गर्भगृह अंदर
से चौकोर और बाहर से बहुकोणीय तारे जैसा
है। गर्भगृह के ऊपर शिखर है, जिसके अंत में स्वर्ण कलश
लगा है। त्रयंबकेश्वर ब्रह्मगिरी नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। ब्रह्मगिरी
को शिव का ही रूप माना जाता है। यही गोदावरी का मूल उद्गम स्थल है। ब्रह्मगिरी की
बायीं ओर की पहाड़ी नीलगिरी है, इस पर नीलांबिका, नीलकंठेश्वर और भगवान दत्तात्रेय का मंदिर है। त्रयंबकेश्वर
को घेरने वाली तीसरी पहाड़ी है गंगा-द्वार। यहाँ ऊपर गंगा
गोदावरी मंदिर है। कहते हैं ब्रह्मगिरि में लुप्त होने के बाद गंगा-द्वार में ही गोदावरी ने
पुन दर्शन दिये थे। इसी पहाड़ी पर एक स्थान पर 108
शिवलिंग भी खुदे हैं और अनेक गुफाएँ हैं।
पौराणिक कथा
पौराणिक कथा
शिव पुराण के अनुसार
‘पूर्व समय में गौतम
नाम के एक प्रसिद्ध ऋषि अपनी धर्मपत्नी अहल्या के साथ रहते थे। उन्होंने दक्षिण भारत के ब्रह्मगिरि पर्वत पर दस हज़ार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। एक समय वहाँ सौ
वर्षों तक वर्षा बिल्कुल नहीं हुई, सब जगह सूखा पड़ने के कारण
जीवधारियों में बेचैनी हो गई। जल के अभाव में पेड़-पौधे सूख गये, पृथ्वी पर महान संकट टूट पड़ा, सर्वत्र चिन्ता ही चिन्ता, आख़िर जीवन को धारण करने
वाला जल कहाँ से लाया जाये? उस समय मनुष्य, मुनि, पशु, पक्षी तथा अन्य जीवनधारी भी जल के लिए भटकते हुए विविध दिशाओं में चले गये।
उसके बाद ऋषि गौतम ने छ:
महीने तक कठोर तपस्या करके वरुण देवता को प्रसन्न किया। ऋषि ने वरुण देवता से जब जल बरसाने की प्रार्थना की, तो उन्होंने कहा कि मैं देवताओं के विधान के विपरीत वृष्टि
नहीं कर सकता, किन्तु तुम्हारी इच्छा की
पूर्ति हेतु तुम्हें 'अक्षय' जल देता हूँ। तुम उस जल को रखने के लिए एक गड्ढा तैयार करो।
वरुण देव के आदेश के अनुसार ऋषि गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोद दिया, जिसे वरुण ने अपने दिव्य जल से भर दिया। उसके बाद उन्होंने
परोपकार परायण ऋषि गौतम से कहा– ‘महामुने! यह अक्षुण्ण जल कभी नष्ट नहीं होगा और तीर्थ बनकर इस पृथ्वी
पर तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसके समीप दान-पुण्य, हवन-यज्ञ, तर्पण, देव पूजन और पितरों का श्राद्ध,
सब कुछ अक्षय फलदायी होंगे। उसके बाद उस जल से ऋषि गौतम ने
बहुतों का कल्याण किया, जिससे उन्हें सुख की
अनुभूति हुई।
इस प्रकार वरुण से
अक्षय जल की प्राप्ति के बाद ऋषि गौतम आनन्द के साथ अपने नित्य नैमित्तिक कर्म, यज्ञ आदि सम्पन्न करने लगे। उन्होंने अपने नित्य हवन-यज्ञ के लिए धान, जौं, नीवार (ऋषि धान्य) आदि लगवाया। जल की सुलभता से वहाँ विविध प्रकार की फ़सलें, अनेक प्रकार के वृक्ष तथा
फल-फूल लहलहा उठे। इस प्रकार जल की सुविधा और व्यवस्था को
सुनकर वहाँ हज़ारों
ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी और जीवधारी रहने लगे। कर्म करने वाले बहुत से ऋषि-मुनि अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रों तथा शिष्यों के साथ
रहने लगे। समय का सदुपयोग करने के लिए गौतम ने काफ़ी खेतों में धान लगाया। उनके
प्रभाव से उस क्षेत्र में सब ओर आनन्द ही आनन्द था।
एक बार कुछ
ब्रह्मणों की स्त्रियाँ जो गौतम के आश्रम में आकर निवास करती थीं, जल के सम्बन्ध में विवाद हो जाने पर अहल्या से नाराज़ हो
गयी। उन्होंने गौतम को ऋषि को हानि पहुँचाने हेतु अपने पतियों को उकसाया। उन
ब्राह्मणों ने गौतम का अनिष्ट करने हेतु गणेश जी की आराधना की। गणेश जी के प्रसन्न होने पर उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि आप
ऐसा कोई उपाय कीजिए कि यहाँ के सभी ऋषि डाँट-फटकार कर गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें। गणेश जी ने उन सबको समझाया कि तुम लोगों को ऐसा करना उचित नहीं है। यदि तुम
लोग बिना अपराध किये ही गौतम पर क्रोध करोगे, तो इससे तुम लोगों की ही हानि होगी। जिसने पहले उपकार किया हो, ऐसे व्यक्ति को कष्ट दिया
जाय, तो वह अपने लिए ही दु:खदायी होता है। जब अकाल पड़ा था और उपवास के कारण तुम
लोग दु:ख भोग रहे थे, उस समय गौतम ने जल की व्यवस्था करके तुम लोगों को सुख
पहुँचाया, किन्तु अब तुम लोग उन्हें ही कष्ट देना चाहते हो। उस विषय पर तुम लोग
पुनर्विचार करो। गणेश जी के समझाने पर भी वे दुष्ट ऋषि दूसरा वर लेने के लिए तैयार
नहीं हुए और अपने पहले वाले दुराग्रह पर अड़े रहे।
शिवपुत्र गणेश अपने भक्तों के अधीन होने के कारण, उनके द्वारा गौतम के
विरुद्ध माँगे गये वर को स्वीकार कर लिया और कहा कि उसे मैं अवश्य ही पूर्ण
करूँगा। गौतम ने अपने खेत में धान और जौं लगाया था। गणेश जी अत्यन्त दुबली-पतली और कमज़ोर गाय का रूप धारण कर उन खेतों में जाकर फ़सलों को चरने लगे। उसी
समय
संयोगवश दयालु गौतम जी वहाँ पहुँच गये और मुट्ठी भर खर-पतवार लेकर उस गौ को हाँकने लगे। उन खर-पतवारों का स्पर्श होते ही वह दुर्बल गौ कांपती हुई धरती पर
गिर गई और तत्काल ही मर गयी।
वे दुष्ट ब्राह्मण और उनकी स्त्रियाँ छिपकर उक्त सारी घटनाएँ देख रही थीं। गौ के धरती पर गिरते
ही सभी ऋषि गौतम के सामने आकर बोल पड़े– ‘अरे , गौतम ने यह क्या कर डाला?’ गौतम भी आश्चर्य में डूब गये। उन्होंने अहल्या से दु:खपूर्वक कहा– ‘देवि!
यह सब कैसे हो गया और क्यों हुआ? लगता है, ईश्वर मुझ पर कुपित हैं। अब मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ?
मुझे तो गोहत्या के पाप ने स्पर्श कर लिया है।’ इस प्रकार पश्चाताप करते हुए गौतम की उन ब्राह्मणों तथा
उनकी पत्नियों ने घोर निन्दा की, उन्हें अपशब्द कहे और
दुर्वचनों द्वारा अहल्या को भी प्रताड़ित किया। उनके शिष्यों तथा पुत्रों ने भी
गौतम को पुन:-पुन: धिक्कारा और फटकारा, जिससे बेचारे गौतम सन्ताप करने लगे। ब्राह्मणों ने उन्हें
धिक्कारते हुए कहा– ‘अब तुम यहाँ से चले जाओ,
क्योंकि तुम्हें यहाँ मुख दिखाना अब ठीक नहीं है। गोहत्या
करने वाले का मुख देखने पर तत्काल सचैल अर्थात वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता है। इस आश्रम में तुम जैसे गो हत्यारे के रहते हुए अग्नि देव और पितृगण (पितर) हमारे हव्य-कव्य (हवन तथा पिण्डदान) आदि को ग्रहण नहीं करेंगे।
इसलिए पापी होने के कारण तुम बिना देरी किये
शीघ्र ही परिवार सहित कहीं दूसरी जगह चले जाओ।
उसके बाद उन दुष्ट
ब्राह्मणों ने गालियाँ देते हुए सपत्नीक ऋषि गौतम को अपमानित किया और उन पर ढेले
तथा पत्थरों से भी प्रहार किया। कष्ट और मानसिक सन्ताप से भी पीड़ित गौतम ने उस
आश्रम को तत्काल छोड़ दिया। उन्होंने वहाँ से तीन मील की दूरी पर जाकर अपना आश्रम
बनाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम को परेशान करने हेतु वहाँ भी उनका पीछा किया।
उन्होंने कहा– ‘जब तक तुम्हारे ऊपर गो
हत्या का पाप है, तब तक तुम्हें किसी भी
वैदिकदेव अथवा पितृयज्ञ के अनुष्ठान करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इसलिए
तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिए।’ मुनि गौतम ने बड़ी कठिनाई और दु:ख के साथ पन्द्रह दिनों को बिताया, किन्तु धर्म-कर्म से वंचित होने के कारण उनका जीवन दूभर हो गया। उन्होंने उन मुनियों, ब्राह्मणों से गोहत्या का
प्रायश्चित बताने हेतु बार-बार दु:खी मन से अनुनय-विनय की।
उनकी दीनता पर तरस खाते
हुए उन मुनियों ने कहा– ‘गौतम! तुम अपने पाप को प्रकट करते हुए
अर्थात किये गये गोहत्या-सम्बन्धी पाप को बोलते हुए तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा
करके फिर एक महीने तक व्रत करो। व्रत के बाद जब तुम इस ब्रह्मगिरि की एक सौ एक
परिक्रमा करोगे, उसके बाद ही तुम्हारी शुद्धि होगी।
ब्राह्मणों ने उक्त प्रायश्चित का विकल्प बतलाते हुए कहा कि यदि तुम गंगा जी को
इसी स्थान पर लाकर उनके जल में स्नान करो, तदनन्तर एक करोड़
पार्थिव लिंग बनाकर महादेव जी की उपासना (पार्थिव पूजन) करो, उसके बाद पुन: गंगा स्नान करके इस ब्रह्मगिरि
पर्वत की ग्यारह परिक्रमा करने के बाद एक सौ
कलशों (घड़ों) में जल भर पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक करो, फिर
तुम्हारी शुद्धि हो जाएगी और तुम गो हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे।’ गौतम ने उन ऋषियों की बातों को स्वीकार करते हुए कहा कि वे ब्रह्मगिरि की एवं
पार्थिव शिव लिंग पूजन करेंगे। तत्पश्चात उन्होंने अहल्या को साथ लेकर ब्रह्मगिरि
की परिक्रमा की और अतीव निष्ठा के साथ पार्थिव लिंगों का निर्माण कर महादेव जी की
आराधना की।
मुनि गौतम द्वारा अटूट
श्रद्धा भक्ति से पार्थिव पूजन करने पर पार्वती सहित भगवान शिव प्रसन्न हो गये। उन्होंने अपने प्रमथगणों सहित प्रकट होकर
कहा- ‘गौतम! मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। गौतम
शिव के अद्भुत रूप को देखकर आनन्द विभोर हो उठे। उन्होंने भक्तिभाव पूर्वक शिव को
प्रणाम कर उनकी लम्बी स्तुति की। वे हाथ जोड़कर खड़े हुए और भगवान शिव से बोले कि ‘आप मुझे निष्पाप (पापरहित) बनाने की कृपा करें।’ भगवान
शिव ने कहा– ‘तुम धन्य हो। तुम में किसी भी प्रकार का कोई
पाप नहीं है। संसार के लोग तुम्हारे दर्शन करने से पापरहित हो जाते हैं। तुम सदा
ही मेरी भक्ति में लीन रहते हो, फिर पापी कैसे हो सकते हो?
उन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल-कपट किया है, तुम
पर घोर अत्याचार किया है। इसलिए वे ही पापी, हत्यारे और
दुराचारी हैं। उन सब कृतघ्नों का कभी भी उद्धार नहीं होगा, जो
लोग उन दुरात्माओं का दर्शन करेगें वे भी पापी बन जाएँगे।’
भगवान शिव की बात सुनकर ऋषि गौतम आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने शिव
को पुन:-पुन: प्रणाम किया और कहा– ‘भगवान्! उन्होंने तो मेरा
बड़ा उपकार किया है, वे महर्षि धन्य हैं, क्योंकि उन्होंने मेरे लिए परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके दुराचार से
ही मेरा महान कार्य सिद्ध हुआ है। उनके बर्ताव से ही हमें आपका परम दुर्लभ दर्शन
प्राप्त हो सका है।’ गौतम की बात सुनकर भगवान शिव अत्यन्त
प्रसन्न होकर उनसे बोले– विप्रवर! तुम सभी ऋषियों में
श्रेष्ठ हो, मैं तुम पर अतिशय प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम कोई उत्तम वर माँग लो।’ ऋषि गौतम ने महेश
को बार-बार प्रणाम करते हुए कहा कि लोक कल्याण करने के लिए आप मुझे गंगा प्रदान
कीजिए। इस प्रकार बोलते हुए गौतम ने लोकहित की कामना से भगवान शिव के चरणों को
पकड़ लिया। तब भगवान महेश्वर ने पृथ्वी और स्वर्ग के सारभूत उस जल को निकाला, जो ब्रह्मा जी ने उन्हें उनके विवाह के अवसर पर दिया था। वह परम
पवित्र जल स्त्री का रूप धारण करके जब वहाँ खड़ा हुआ, तो ऋषि
गौतम ने उसकी स्तुति करते हुए नमस्कार किया। गौतम ने गंगा की आराधना करके पाप से
मुक्ति प्राप्त की। गौतम तथा मुनियों को गंगा ने पूर्ण पवित्र कर दिया। वह गौतमी
कहलायी। गौतमी
नदी के किनारे त्र्यंबकम शिवलिंग की स्थापना की गई,
क्योंकि इसी शर्त पर वह वहाँ ठहरने के लिए तैयार हुई थीं।
गौतम ने कहा– ‘सम्पूर्ण भुवन को पवित्र करने वाली गंगे! नरक में गिरते हुए
मुझ गौतम को पवित्र कर दो।’ भगवान शंकर ने भी कहा– ‘देवि! तुम इस मुनि को पवित्र करो औरवैवस्वत
मनु के अट्ठाइसवें कलि
युग तक यहीं रहो।’ गंगा
ने भगवान शिव से कहा कि ‘मैं अकेली यहाँ अपना निवास बनाने
में असमर्थ हूँ। यदि भगवान महेश्वर अम्बिका और अपने अन्य गणों के साथ रहें तथा मैं
सभी नदियों में श्रेष्ठ स्वीकार की जाऊँ, तभी इस धरातल पर रह
सकती हूँ।’ भगवान शिव ने गंगा का अनुरोध स्वीकार करते हुए
कहा कि ‘तुम यहाँ स्थित हो जाओ और मैं भी यहाँ रहूँगा।’
उसके बाद विविध देवता, ऋषि, अनेक तीर्थ तथा सम्मानित क्षेत्र भी वहाँ आ पहुँचे। उन सभी ने
आदरपूर्वक गौतम, गंगा तथा भूतभावन शिव का पूजन किया और
प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करते हुए अपना सिर झुकाया। उनकी आराधना से प्रसन्न गंगा और गिरीश ने कहा – ‘श्रेष्ठ
देवताओं! हम तुम लोगों का प्रिय करना चाहते हैं, इसलिए तुम
वर माँगो।’
देवताओं ने कहा कि ‘यदि गंगा और भगवान शिव प्रसन्न हैं, तो
हमारे और मनुष्यों का प्रिय करने के लिए आप लोग कृपापूर्वक यहीं निवास करें। गंगा
ने उत्तर देते हुए कहा कि ‘मैं तो गौतम जी का पाप क्षालित कर
वापस चली जाऊँगी, क्योंकि आपके समाज में मेरी विशेषता कैसे
समझी जाएगी और उस विशेषता का पता कैसे लगेगा? सबका प्रिय
करने हेतु आप सब लोग यहाँ क्यों नहीं रहते हैं? यदि आप लोग
यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें, तो मैं अवश्य ही रहूँगी।’
देवताओं ने बताया कि जब सिंह राशि पर बृहस्पति जी का पदार्पण होगा, उस समय हम सभी
आकर यहाँ निवास करेंगे। ग्यारह वर्षों तक लोगों का गो-पातक यहाँ क्षालित होगा,
उस पापराशि को धोने के लिए हम लोग सरिताओं में श्रेष्ठ आप गंगा के
पास आया करेंगे। महादेवी! समस्त लोगों पर अनुग्रह करते हुए हमारा प्रिय करने हेतु
तुम्हें और भगवान शंकर को यहाँ पर नित्य निवास करना चाहिए।’
देवताओं ने आगे बताया कि ‘गुरु
(बृहस्पति) जब तक सिंह राशि पर यहाँ विराजमान होंगे, तभी तक
हम लोग यहाँ निवास करेंगे। उस समय हम लोग तुम्हारे जल में तीनों समय स्नान
करके भगवान शंकर का दर्शन करते हुए
शुद्ध होंगे।’ इस प्रकार ऋषि गौतम और देवताओं के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवती गंगा और
भगवान शिव वहाँ अवस्थित हो गये। तभी से वहाँ गंगा गौतमी (गोदावरी) के नाम से प्रसिद्ध हुईं और
भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग भी त्र्यम्बक नाम से
विख्यात हुआ। यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग समस्त पापों का क्षय करने वाला है। उसी
दिन से जब-जब बृहस्पति का सिंह राशि पर पदार्पण होता है, तब-तब सभी
तीर्थ, क्षेत्र, देवता, पुष्कर आदि
सरोवर, गंगा आदि श्रेष्ठ नदियाँ, भगवान विष्णु आदि देवगण गौतमी के
तट पर आते हैं और वहीं निवास करते हैं।
जितने दिनों तक वे गौतमी के
तट पर निवास करते हैं,
उतने दिनों तक उनके मूलस्थान पर कोई फल नहीं प्राप्त होता है। इस
प्रकार गौतमी तट पर स्थित इस त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग का जो मनुष्य भक्तिभावपूर्वक
दर्शन पूजन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
ऋषि गौतम द्वारा पूजित यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग इस लोक में मनुष्य के समस्त
अभीष्ट फलों को प्रदान करता है और परलोक में उत्तम मोक्ष पद को देने वाला है l
यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक विशेष पूजा-अर्चना भी होती है, जिसके कारण यहाँ
वर्ष पर्यंत लोग आते रहते हैं।
कुशावर्त सरोवर तीर्थ
त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग की कोई भी
यात्रा कुशावर्त सरोवर केदर्शन -मज्जन के बिना अधूरी
है। कुशावर्त गोदावरी नदी का प्रतीकात्मक उद्भव स्थल है। इस सरोवर में स्नान करने
से मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पाकर
मोक्ष प्राप्त करता है। गोदावरी का वास्तविक उद्भव स्थल निकट ही ब्रह्मगिरि की
पहाडि़यों में है। वहां से कुशावर्त तक की यात्रा में गोदावरी लुकाछिपी का खेल
खेलती एक अल्हड़ बालिका सी दिखाई देती है। गोदावरी को दक्षिण की गंगा कहा जाता है।
गोदावरी पापनाशिनी और जीवनदायिनी ही नहीं,
गंगा की भांति पवित्र भी मानी जाती है।
कुशावर्त का महत्त्व
सिंहस्थ कुंभ के समय और भी बढ़ जाता है। कुशावर्त के चारो कोनों पर मंदिर हैं।
उत्तर - पूर्व के कोनेपर गोदावरी तथा उत्तर-पश्चिम
के कोने पर कुशेश्वर महादेव का मंदिर है। दक्षिण - पश्चिम कोण पर साक्षी
विनायक मंदिर है जो सभी यात्रियों के यात्रा विधि के साक्षी हैं तो दक्षिण-पूर्व कोण पर केदारेश्वर महादेव का मंदिर जिनकी कृपा
से गौतम ऋषि को गो-हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी।
‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते
हैं अपने मूल उद्गम स्थल ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए
गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही
इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना
जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं। 18वीं सदी में श्रीमंत राव साहिब पार्णेकर ने उसके
चारों ओर पक्के घाट और बरामदे बनवाए थे।
गौतम ऋषि
ने पाप से मुक्ति के लिए ब्रह्मगिरि पर तपस्या करना शुरू किया जिससे वे शिव की जटा से गंगा को नीचे ला सकें और प्रतिदिन उसमे स्नान कर सकें। घोर तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और अपनी जटा को झटक कर गंगा को मुक्त कर दिया।
गंगा ब्रह्मगिरि से निकलकर छिपती रहीं किंतु एक स्थान पर ऋषि गौतम ने उन्हें मंत्रपूरित कुश से बांध दिया। वे वहीं ठहर गईं और वहां से सामान्य
प्रवाह होने लगा। उसी स्थल को कुशावर्त सरोवर कहते हैं, जहां गौतम ऋषि
स्नान करके पापमुक्त हुए। गौतम ऋषि के अथक प्रयासों से गोदावरी का अवतरण हुआ था, इस लिए इस पुण्य नदी को गौतमी के नाम से भी जाना जाता
है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के विवरण
में त्रयंबकेश्वर को गौतमी के तट पर स्थित बताया गया है - वाराणस्यां तु विश्वेशं, त्र्यंबकं गौतमी तटे।
त्रयंबकेश्वर के बाद
और नासिक से पहले चक्रतीर्थ नामक एक कुंड है, यहीं से गोदावरी एक नदी के रूप में बहती नजर आती है। इसलिए बहुत से लोग
चक्रतीर्थ को ही गोदावरी का प्रत्यक्ष उद्गम मानते हैं।
जय श्री त्र्यम्बकेश्वर
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